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जैन धर्म और जीवन-मूल्य
ही वह सभ्य और समाज हितैषी बनता जायगा और जितने अधिक व्यक्ति इन व्रतों
का पालन करेंगे उतना ही समाज सुखी, शुद्ध और प्रगतिशील बनेगा । अतः इन व्रतों के विधान द्वारा जैन संस्कृति ने मानव के वैयक्तिक और सामाजिक जीवन के शोधन का प्रयत्न किया है, जो आध्यात्मिक विकास के लिए आधार है ।
नारी की प्रतिष्ठा
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यह सन्तुलन की प्रवृत्ति जैन संस्कृति में केवल साधु और गृहस्थ जीवन में ही नहीं रही. मानवीय सम्बन्धों में भी व्याप्त है । मानव समाज की सृष्टि नर-नारी के समान सहोयग से ही संभव है, चाहे वह जीवन में प्रवृत्ति का मार्ग हो या निवृत्ति का । नारी को अपना पूर्ण विकास करने की स्वतन्त्रता जैन संस्कृति में प्रारम्भ से रही है । मुनि प्रार्थिका एवं श्रावक-श्राविका का विभाजन इस बात का प्रमाण है ।
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जैन साहित्य में नारी का जो चित्ररण हुआ है,
और स्वतन्त्र्य को सुरक्षित रखने का प्रयत्न हुआ है ।
उसमें हमेशा उसकी प्रतिष्ठा यदि कहीं नारी के विषय में कुछ उपेक्षा व घृणा की भावना व्यक्त हुई है तो वह दो प्रतिक्रियाओं का परिणाम है । व्यक्ति का परम कल्याण साधु जीवन के माध्यम से ही सम्भव है । अतः उसके लिए नारी का परित्याग अनिवार्य सा हो गया हो। इसलिए स्वाभाविक है, त्याज्य वस्तुों में उसे शामिल कर उसे तुच्छ कह दिया गया । दूसरी बात, सम्पूर्ण जैन साहित्य ब्राह्मण और बौद्ध विद्वानों के सम्पर्क में रहते हुए लिखा गया है अतः उनके प्रभाव से भी नारियों के चित्रण में स्खलन सम्भव है । वैसे जैन संस्कृति की भावना ने नारियों की हमेशा कद्र की है ।
पर्व और त्यौहार
पर्व पौर त्यौहार ममाज के अन्तमनिस की सामूहिक अभिव्यक्ति है । व्यष्टि श्रोर समष्टि के जीवन क्रम में जिस विश्वास, प्रेरणा एवं उत्साह की आवश्यकता पड़ती है, उसकी पूर्ति पर्वों से होती है । पर्व व त्योहार किसी न किसी धार्मिक एवं सामाजिक दायित्व के प्रति व्यक्ति को जगाने का कार्य करते हैं । जैन संस्कृति के भी अपने कुछ पर्व हैं । जैन पर्व मानव से खेल - कूद, आमोद-प्रमोद, भोग-उपभोग प्रथवा हर्षं व विषाद की मांग नहीं करते अपितु वे तो मनुष्य की तप, त्याग, स्वाध्याय, अहिंसा, सत्य प्रेम तथा विश्व मैत्री की भावना को प्रोत्साहित करते हैं ।
जैन पर्व धार्मिक एवं सामाजिक दोनों तरह के हैं। सभी का परिचय एवं विवरण सम्भव नहीं है । उदाहरण स्वरूप संवत्सरी या क्षमावाणी पर्व की महत्ता समझी जा सकती है ।
संवत्सरी, पर्वाधिराज पर्युषण पर्व के समाप्त होने के बाद मनायी जाती है । पर्युषण के दिनों मे तप, वैराग्य और साधना का ही वातारण रहता है । वर्ष भर
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