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जैन संस्कृति का वैशिष्टय
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घबड़ाकर शरीर को नष्ट करने का प्रयास है । एक में संयम की साधना है तो दूसरे में असंयम और भावावेश की तामसिकता। अत: आत्मघात और समाधिमरण दो नितान्त विरोधी बाते हैं। जैन साहित्य में समाधिमरण की तैयारी के लिए जो आयोजन है उससे यही प्रतीत होता है मानों किसी महोत्सव की तैयारी हो रही हो । वास्तव में, जिनका पुनर्जन्म या भावी जीवन सुधार रहा हो उसके लिए तो मरण एक महोत्सव ही है। मत्यु का ऐसा स्वागत अन्यत्र देखने को नहीं मिलता। सन्तुलित समाज-व्यवस्था
जैन संस्कृति की यह ऐसी एक विशेषता है जिसके कारण आज भी उसका स्थायित्व अपनी भूमि पर बना हुमा है। समाज को श्रमण पीर श्रमणोपासक केवल इने दो भागों में विभाजित करना जैनाचार्यों की दूरदर्शिता को सूचित करता है । भारत में ही क्या, विश्व में प्रत्येक धर्म के साथ यह विभाजन है। वैदिक, पारसी एवं मुस्लिम धर्मों में यद्यपि साधुओं का विधान है, किन्तु उनकी जीवन-चर्या गृहस्थों से अधिक भिन्न नहीं है। ऐसी दुविधा में को एक जीवन भी नहीं सध पाता । दूसरी और बौद्ध धर्म में यद्यपि साधु जीवन को बहुत साधा, लेकिन वह गृहस्थ को न सम्हाल सका । केवल प्रव्रज्या के ग्राह्वान ने सम ज को अस्त-व्यस्त जरूर किया होगा । उसके भारत में न टिक पाने का एक कारण यह भी हो सकता है ।
जैन संस्कृति के अन्तर्गत साधु एव गृहस्थ दोनों जीवन की अपनी निजी मर्यादाएं हैं । अपनी अलग साधनाएं । व्यक्ति की क्षमता और परिस्थिति दोनों को ध्यान में रखकर जैन धर्म प्रचारित हुआ। वर्गीकृत हुना। कर्मों के आगमन को रोकने के लिए गृहस्थ जीवन में अणुव्रतों का विधान है। व्रत-उपवासों की साधना है । पर्व-त्यौहारों का महत्त्व है । सचित कर्मों के सर्वथा विनाश के लिए महाव्रतों का पालन संयम की साधना एवं तपश्चरण अनिवार्य है। अत: उसकी साधना के लिए निर्मोही अवस्था में अःना आवश्यक है, जो साधु-जीवन में ही सभव है । जैन धर्म ने इसीलिए साधु एवं गृहस्थ दोनों जीवन में सन्तुलन बनाए रखा। दोनों की अलग-अलग दैनिक-चर्या एवं साधना आदि के नियम निश्चित किये। साधुओं के लिए महाव्रतों और गृहस्थों के लिए अणुव्रतों का विधान पूर्ण रूप से व्यावहारिक है ।
पांच अणुव्रतों के स्वरूप पर विचार करने से एक तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि इन व्रतों के द्वारा मनुष्य की उन वृत्तियों पर नियन्त्रण करने का प्रयत्न किया गया है, जो समाज में मुख्य रूप से वर-विरोध की जनक हैं। दूसर. यह बात ध्यान देने योग्य है कि प्राचरण का परिष्क र सरलतम रीति से कुछ निषेधा. त्मक नियमों द्वारा ही किया जा सकता है । व्यक्ति जो क्रियाए करता है वे मूलतः उनके स्वार्थ से प्रेरित होती हैं। उन क्रियाओं के हिताहित का निर्णय किनी मापदण्ड के निश्चित होने पर ही संभव है। हिंसा. झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह आदि सामाजिक पाप ही तो हैं । जितने ही अंश में व्यक्ति इनका परित्याग करेगा, उतना
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