Book Title: Jain Dharm aur Jivan Mulya
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Sanghi Prakashan Jaipur

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Page 22
________________ जैन धर्म और जीवन-मूल्य जाते हैं, उस समय श्रात्मा से निर्लिप्त हो मुक्त हो जाती है। धीरे-धीरे ऐसी प्रवस्था श्राती है जिसमें अन्दर और बाहर की समस्त सूक्ष्म और स्थूल क्रियाएं रुक जाती हैं । मन का व्यापार भी निरुद्ध हो जाता है । आत्मा पूर्ण परमात्मस्थ हो जाती है । यह साधना का अन्त है । मुक्ति की प्राप्ति है । 12 कर्मवाद की इस व्यवस्थित श्रृंखला से स्पष्ट है कि व्यक्ति अपने अच्छे बुरे कार्य के लिए स्वयं जिम्मेवार है । ईश्वर जैसी उस हस्ती की उसे कोई आवश्यकता नहीं जो उसे संसार के दुखों से छुड़ाने के लिए अवतरित होती रहे । अतः जैन धर्म के तत्त्वज्ञान और कर्मवाद के सिद्धान्त ने व्यक्ति स्वातन्त्र्य का जो आदर्श उपस्थित किया है, वह अन्यत्र मिलना दुर्लभ है । मररण - महोत्सव जन्म, जीवन और मरण इनका परस्पर अभिन्न सम्बन्ध है । केवल एक के शोधन से शेष दो में पवित्रता नहीं आ जाती । अत: जैन संस्कृति में जैसे जन्म श्रौर जीवन को सुधारने का प्रयत्न किया गया है, वैसे भी मरण को । जीने की कला में निपुण होना जितना आवश्यक है, मरने की कला सीखना उतना ही अनिवार्य | क्योंकि जन्म और जीवन से छुटकारा देने वाला मरण ही है, कारावास से छुटकारा देने वाले जेलर की तरह | अतः जैनाचार्यों ने मरण को एक महोत्सव के रूप में स्वीकार किया है । जीवन को साधने से अधिक प्रयत्न मरण को साधने में किया है । इस तरह के मरण को समाधि मरण या सल्लेखना कहा गया है । शुद्ध आत्मस्वरूप पर मन को केन्द्रित करते हुए प्राणों का विसर्जन समाधिमरण है । सम्यक (सत्) रूप से काय और कषाय को कृश करना ( लेखना) संल्लेखना है । अर्थात् बाह्य और अभ्यन्तर बन्धनों का सहर्ष त्याग ही समाधिमरण है । जैन धर्म गृहस्थ एवं साधु दोनों के लिए इस तरह मृत्यु का स्वागत करना परम कर्तव्य मानता है । मरण-काल के उपस्थित होने पर ग्रात्मा की अमरता का ध्यान करते हुए अपने समस्त व्यामोह को विसर्जित कर मृत्यु की अगवानी करना कितनी बड़ी समाधि है । जिसका अन्त ऐसा पवित्र एवं निर्बन्ध हो उसका भविष्य अपने प्राप सुधरा हुआ है । इसीलिए जैन संस्कृति का उद्घोष है- -जब तक जियो, ध्यान और समाधि की तन्मयता में जियो, अहिंसा और सत्य के प्रसार के लिए जियो, और जब मृत्यु आये तो आत्म-साधना की पूर्णता के लिए मृत्यु का भी समाधिपूर्वक वरण करो । मृत्यु के आने से मन की एकाग्रता, ध्यान में तन्मयता का आनन्द लो। इसे ध्यान में रखते हुए ही जैन साधु व गृहस्थ समाधिमरण की आयोजना करते हैं । समाधिमरण को आत्मघात समझना नितान्त भूल व प्रज्ञानता है । शरीर का मोह त्याग और आत्मघात दोनों एक बात नहीं है । पहले में संसार की वास्त विकता को समझकर शरीर से ममत्व हटाने की बात है, और दूसरे में संसार से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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