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द्वितीय
जैन संस्कृति का वैशिष्टय
"जिन प्रान्तरिक गुणों के बल पर जैन धर्म गत तीन-चार हजार वर्षों से इस देश के जन-जीवन में व्याप्त है, वे हैं-उसकी प्राध्यात्मिक भूमिका, नैतिक विन्यास एवं व्यावहारिक उपयोगिता और सन्तुलन ।" डा. हीरालाल जैन के इस कथन की पुष्टि जन संस्कृति की निम्न कतिपय विशेषताओं को स्पष्ट करने से हो जाती है । तत्त्वज्ञान-निरूपण
मानव जीवन के विश्लेषण के लिए जैन धर्म के प्रवर्तकों ने सम्पूर्ण विश्व का विभाजन जीव और अजीव इन दो तत्त्वों में किया है। यही दो तत्त्व सम्पूर्ण सृष्टि के मूल आधार हैं । इन दोनों का पारस्परिक स्वाभाविक सम्पर्क संसार के प्राणियों की अनन्त दशायें हैं । इस सम्पर्क का आगमन और बन्धन ही प्राणियों का भाग्यनिर्माता है, जो नाना कलुषित भावनामों से संभव है। तथा इसी सम्पर्क का निरोध
और सर्वथा विनाश, जो मन-वचन-काय के संयम से सम्भव है, उस सर्वोत्कृष्ट अवस्था का उद्घाटक है जिसे प्राप्त करना समस्त धार्मिक क्रियाओं व पाचरण का अन्तिम ध्येय है। जड़ और चेतन की इस तत्त्व-व्यवस्था का, विज्ञान का चरम विकास भी विरोध नहीं कर सका, आगे चल कर वह उसे प्रामाणिकता भले प्रदान करे । इस तत्त्वज्ञान को जानकारी के अभाव में प्राणी भ्रान्त हुए भटकते और बन्धन में पड़े रहते हैं । अतः इस तथ्य को अोर सच्ची दृष्टि, उसके सच्चे ज्ञान और तदनुसार आचरण करने की प्रेरणा जैन संस्कृति ने दी है । ज्ञान और विज्ञान के समन्वय का यह आदर्श उदाहरण है। उदार वैचारिक दृष्टि
जैन सस्कृति का दर्शन पक्ष जितना समृद्ध है, उतना व्यावहारिक भी । जैन धर्म ने तत्त्व-विचार की एक मौलिक अतिशय दिव्य पद्धति जगत् को प्रदान की है। समय-समय पर इसके दिग्गज आचार्यों ने सत्य को परखने का जो मार्ग प्रशस्त किया है, उससे अन्य दार्शनिकों को अपने चिन्तन को व्यापक करने का मौका मिला है। जैन दर्शन अपनी इसी उदारता के कारण सबके साथ सामजस्य रख सका है। उसकी
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