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जैन धर्म और जीवन-मूल्य
इस प्रकार ऋषभदेव के समय तक भारत की प्राचीन संस्कृति एक सुनिश्चित एवं समुन्नित स्वरूप धारण कर चुकी थी। कला, साहित्य, धर्म, दर्शन आदि सभी का देश में व्यापक प्रभाव था । प्रश्न अब यह है कि उक्त संस्कृति की संगति भारतीय संस्कृति के ऐतिहासिक विकास-क्रम में कहाँ और किस प्रकार बैठती है तथा उसकी परम्परा का आज क्या स्वरूप है ? उसकी क्या विशेषताएं हैं ?
मानव संस्कृति एव सभ्यता का जैन परम्परा ने जो चित्र उपस्थित किया है वह निराधार नहीं है । भारत का इतिहास देश की उस काल की व्यवस्था के वर्णन से प्रारंभ होता है जब अाधुनिक नागरिक सभ्यता का विकास नहीं हुआ था। जनसाधारण समग्र रूप से जंगलों के आधीन था। उसकी दैनिक आवश्यकताए वृक्षों से पूरी होती थीं। जैन-परम्परा ने ऐसे वृक्षों को, जो मनुष्यों की सब इच्छाओं की पूर्ति कर सकें, कल्पवृक्षों का नाम देकर अपनी सूझबूझ का परिचय दिया है । समूचे मानवजीवन का नाम कल्पवृक्ष है, जिसके द्वारा व्यक्ति अपने सर्वोत्कृष्ट अभीष्ट की भी प्राप्ति कर सकता है।
___ जैन पुराणकारों ने जिस परिस्थिति के युग को भोगभमि का नाम दिया है वह भारतीय सभ्यता के उस युग का द्योतक है जब कोई कौटम्बिक व्यवस्था नहीं थी। माता-पिता अपने ऊपर सन्तान का कोई उत्तरदायित्व ही अनुभव नहीं कर पाते थे । पाप-पुण्य, ऊँच-नीच, धर्म-अधर्म प्रादि किन्हीं द्वन्दात्मक प्रवृत्तियों ने जब जन्म नहीं लिया था । जहाँ भोग प्रधान था एवं कर्म गौरा ।
जिसे हम आधुनिक सभ्यता का प्रारम्भिक युग कहते हैं उसे ही जन चिन्तकों ने कर्मभूमि का नाम दिया है। इसी युग से मनुष्य कृषि, अषि, मषि, शिल्प आदि जीविका के कार्यों को करना प्रारम्भ करता है । अतः इस प्रकार यदि थोड़ी गहराई से देखें तो भारतीय सभ्यता के प्रारम्भिक युग के पूर्व की मानव सभ्यता का जैन परम्परा के अनुसार जो विवरण प्रस्तुत किया गया है उसमें सचाई तो है ही, प्रस्तुतीकरण में वैज्ञानिकता भी कम नहीं है ।
भगवान् ऋषभदेव द्वारा प्रवर्तित एवं परिवद्धित जैन संस्कृति की परम्परा का एक निश्चित क्रम हमें उपलब्ध होता है । इस परम्परा को विकसित करने में मुख्यतया तीन आधार परिलक्षित होते हैं । स्वयं ऋषभदेव, उनके बाद के 22 तीर्थङ्कर तथा भगवान् महावीर और उनकी शिष्य-परम्परा। भगवाव ऋषभदेन
__ऋषभदेव के समय की सभ्यता एवं संस्कृति मानव के प्रारम्भिक स्वरूप की द्योतक है । उस समय मानव इतना सरल और जड़ था कि उसे अपने स्वयं के पेट भरने का ज्ञान नहीं था। भगवान् ऋषभदेव ने उसे कर्म करने की प्रेरणा दी। उसकी बुद्धि को स्फुरित किया। पुरुषार्थ को जगाया। तब वन-सभ्यता में जीने
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