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जैनधर्म जीवन और जगत्
रहता है । माण पयासयर-~-ज्ञान हमारे पथ को आलोकित करता है । अतश्चेतना को जगाता है ।
भारतीय अध्यात्म के आचार्यों ने अथवा प्रवक्ताओ ने धर्म को मुक्ति का साधन माना है । धर्म क्या है ? इस जिज्ञासा को समाहित करते हुए जैन आगमो मे बताया गया, धर्म दो प्रकार का होता है-श्रुत धर्म और चारित्र धर्म । इस वर्गीकरण से धर्म की परिभाषा फलित होती है। यानी श्रुत का, शास्त्रो का अध्ययन और आचार का अनुशीलन ही धर्म है। सामान्यत सयम, शील, सदाचार को धर्म माना जाता है। पर भगवान महावीर ने एक नई दृष्टि दी, वह है-"नाणस्स सारो आयारो"--आचार तो ज्ञान का सार है । यदि ज्ञान नही तो आचार का अवतरण कहा से होगा? आचार का स्रोत ज्ञान ही है । इसीलिए ज्ञान की प्राप्ति और उसका उत्तरोत्तर विकास मानवीय जीवन का सर्वोच्च घोष है ।
उपयोगिता के परिप्रेक्ष्य मे यह चिंतन उभरता है कि जिन विपयो का ज्ञान हमारे कार्य-क्षेत्र मे उपयोगी होता है, हमे अधिक से अधिक ससाधन उपलब्ध करा सकता है, हमारे कार्य-क्षेत्र की सफलता का हेतु बनता है, उन विषयो को भली-भाति जानना चाहिए। किन्तु तत्त्व ज्ञान तत्त्व विद्या से जन-सामान्य को क्या लाभ हो सकता है ? तत्त्व उनके लिए है जो आत्मापरमात्मा तथा जीवन और जगत के सूक्ष्म रहस्यो को जानना चाहे। घरगृहस्थी का सचालन तत्त्व-ज्ञान से नहीं होता। बात सही है, पर हम हमारे वास्तविक जीवन मे क्या होना चाहते हैं, क्या करना चाहते हैं, इससे पहले हमारी दृष्टि का निर्धारण-परिमार्जन आवश्यक है। तत्त्व-विद्या हमारे सम्यक् दृष्टिकोण का निर्माण करती है । सम्यक् दृटिकोण ही हमारे आचारव्यवहार की बुनियाद है।
आचार-दर्शन आदर्श मूलक विज्ञान है। वह जब नैतिक जीवन का आदर्श निर्धारित करने और परम ध्येय के साथ उसका सबध स्थापित करने का प्रयत्न करता है, तब वह तत्त्व-चर्चा का विषय बन जाता है ।।
तत्त्व-मीमासा सत् के स्वरूप पर विचार करती है। जबकि आचारदर्शन जीवन-व्यवहार मे मूल्यो का निर्धारण करता है। विचार के ये दोनो क्षेत्र एक दूसरे के बहुत निकट हैं। जब हम किसी एक क्षेत्र में गहराई से प्रवेश करते हैं तो दूसरे की सीमा का अतिक्रमण कर उसमे भी प्रविष्ट होना पडता है।
मैकेंजी का कथन है कि जब हम यह पूछते हैं कि मानव-जीवन का मूल्य क्या है ? तब हमे यह भी पूछना पडता है कि मानव-व्यक्तित्व का तात्त्विक स्वरूप क्या है ? वास्तविक जगत् मे उसका क्या स्थान है ? इन