Book Title: Jain Dharm Jivan aur Jagat
Author(s): Kanakshreeji
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 15
________________ ज्ञान है आलोक अगम का दुख-मुक्ति का उपाय है विधा और आचरण ! अविद्यावान प्राणा दरा-परम्पग का मर्जक होता है। माचरण हमारा गन्तव्य-पर है। विद्या है गस्ता दिखाने वाला प्रकाश । वह जीवन के यात्रा-पथ में मदा साप रहता है और पथिक के आगे-आगे चलता है। एक युवा यात्री को मघन वन पार कर दूरवर्ती कम्वे में जाना था। उचट ग्यावर पहाटी गस्ता । अगला गाव दूर तक दिखाई नहीं दे रहा था। मुरमई साम उतर आई । युवक का दिल घटक रहा था । लवा रास्ता, चागे ओर फैला निर्जन वन, गत का समय, यह डगवना बघेग, मेरे पाम सिर्फ छोटो-गी टॉर्च, काँगे पार कर सकूगा इम विपम मार्ग पो? दिमाग में विचारो को उपन-पुथल, भय और नागा, दिल में घटकन. तन-चपन में पसीना, मनझनाहट । एक दम भी आगे बढना पठिन । यह निराण-ताश हो रही बैठ गया। शरीर शिपिन, मन तनाव-प्रम्त । अधेरे की चादर ओढ़े, महमा-दुबका-मा वह युवक, एक हारे-पये यूद्ध की भांति बैठा था। उधर से उसके पास से एक वृद्ध व्यक्ति गुजरा। उन और नाति मे चूदा होते दर भी मन मे तरण, गति में उत्साह पी मनका, माखो में विश्याम मी चमक । समीप आते ही युवक ने पूछा--पग बात है ? गन्ते मे ही पाते बैठ गए ? युवक ने कहा -- या पद ? मुनीवन में पिर गया है। गम्मा नम्बा, अन्धेरा गरग और प्रकाशनमा-मा । म टॉचं पा प्रमाण तो दो-चार पदमो से जधिय माप नही देगा। व लोदा गाय तर ग गरगा?

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