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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन मल्ल के मामा जिनानन्द जैनाचार्य थे और भरुच में बुद्धानन्द नामक बौद्ध आचार्य के साथ वाद में पराजित होने के कारण वे वलभीपुर गए, वहाँ उन्होंने अपनी बहन दुर्लभदेवी को जिनयश आदि तीनों पुत्रों के साथ जैनधर्म की दीक्षा दी थी । जिनानन्द ने तीनों को पढ़ाकर विद्वान बनाया।
एकबार जिनानन्द तीर्थयात्रा के लिए गए । तब निषेध करने पर भी मुनि मल्ल ने पूर्वगत श्रुतमय नयचक्र ग्रन्थ को पढ़ा, प्रस्तुत ग्रन्थ की प्रथम कारिका पढ़ने के बाद सोच ही रहे थे कि उनके हाथ से श्रुतदेवता ने वह पुस्तक अदृश्य रूप से खींच ली । मल्ल मुनि को बहुत पश्चाताप हुआ किन्तु उससे कोई लाभ नहीं हुआ, अत: वह गिरखण्ड नामक पर्वत गुफा में जाकर श्रुतदेवता की आराधना करने बैठ गए । दो-दो उपवास और पारणा में केवल रूक्षवाल (गुजरात में होनेवाला एक धान्य विशेष) का भोजन करके श्रुतदेवता की आराधना शुरू की । चार मास तक इस प्रकार का तप करने के पश्चात् पारणा में घृतादि स्निग्द पदार्थ भी ग्रहण करने लगे । एक बार श्रुतदेवता ने परीक्षा करने के लिए पूछा कि मिष्ट क्या ? मुनि ने उत्तर दिया वाल (धान्य विशेष)। इतनी ही बात होते श्रुतदेवता ने चर्चा समाप्त कर दी । तत्पश्चात् छह महिने बाद श्रुतदेवता ने पुनः अचानक ही प्रश्न पूछा कि किसके साथ ? इस प्रश्न का उत्तर मुनि ने छह महिने पूर्व पूछे गए प्रश्न के साथ अनुसंधान करके तुरन्त ही दिया की गुड़ और घी के साथ अर्थात् गुड़ और घी के साथ वाल (धान्य विशेष) मधुर लगता है ।
मुनि की धारणा-शक्ति से संतुष्ट होकर देवी ने वर माँगने को कहा तब मुनि ने कहा मुझे वह पुस्तक पुनः प्रदान की जाये । तब देवी ने कहा कि पूर्वोक्त नयचक्र ग्रन्थ तो पुन: लौटा नहीं सकती किन्तु जो एक श्लोक आपने पढ़ा है उससे आप नया नयचक्र का ग्रन्थन कर पायेंगे । ऐसा कहकर देवी अन्तर्ध्यान (अदृश्य) हो गयी ।
तत्पश्चात् मुनि मल्ल ने आराधना समाप्त करके दश हजार श्लोक प्रमाण नया नयचक्र बनाया। कालान्तर में गुरु जिनानन्दसूरि जब वापस लौटे तब १. नयचक्रं नवं तेन श्लोकायुतमितं कृतम् ।
प्राग्ग्रन्थार्थप्रकाशनेन सर्वोपादेयतां ययौ ॥ ३४ । द्वादशारं नयचक्रं, परिशिष्ठ-४, पृ० ९१०.
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