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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन रहता है । इस प्रकार कालचक्र एवं नयचक्र की रचना में साम्य पाया जाता है। नयचक्र की महत्ता प्रदर्शित करते हुए आचार्य विक्रमसूरि ने कल्पना की है कि नयचक्र के सुचारू अध्ययन से स्याद्वाद का बोध होता है । स्याद्वाद के बोध से मनुष्य कालचक्र के भ्रमण में से मुक्त होता है । इस प्रकार दार्शनिक एवं धार्मिक दोनों दृष्टि से नयचक्र का महत्व स्थापित किया गया है ।
चक्र के बारह अर होते हैं, नयचक्र में भी बारह अरों का विवेचन प्राप्त होता है । अतः नयचक्र को द्वादशार-नयचक्र भी कहते हैं । वे बारह अर इस प्रकार हैं :
१. विधि: २. विधि-विधि (विधेविधि:) ३. विध्युभयम् (विधेविधिश्च नियमश्च) ४. विधिनियमः (विधेर्नियम:) ५. विधिनियमौ (विधिश्च नियमश्च) ६. विधिनियमविधिः (विधिनियमयोविधि:) ७. उभयोभयम् (विधिनियमयो विधिनियमौ) ८. उभयनियमः (विधिनिमयोनियमः) ९. नियमः १०. नियमविधिः (नियमस्य विधि:) ११. नियमोभयम् (नियमस्य विधिनियमौ) १२. नियम नियमः (नियमस्य नियमः)३
१. द्वादशारं नयचक्रं, विक्रमसूरि प्रस्तावना, भाग-४, पृ० २. २. वही २. ३. तयोभंगाः १. विधिः, २. विधिविधिः, ३. विधैर्विधिनियमम्, ४. विधेनियमः, ५.
विधिनियमम्, ६. विधि-नियमस्य विधिः, ७. विधिनियमस्य विधिनियमम्, ८. विधि निमस्य नियमः, ९. नियमः, १०. नियमस्य विधिः, ११. नियमस्य विधिनियमम्, १२. नियमस्य नियमः । द्वा० न० भाग-१, पृ० १०.
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