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ईश्वर की अवधारणा
होता है उसी प्रकार का फल प्राप्त करता है किन्तु स्वेच्छानुसार फल की प्राप्ति नहीं होती । जैसे मनुष्य उचित समय में पथ्य आहार खाता है तो सुख प्राप्त करता है और इसके विपरीत अपथ्य भोजन करने पर दुःख का भागी बनता है । इसी प्रकार धर्म का आचरण करने से सुख की प्राप्ति होती है और अधर्म का आचरण दुःख का कारण होता है । अर्थात् सुख या दुःख ईश्वर प्रेरित नहीं अपितु स्वकर्मवशात् ही होता है। शास्त्रवार्तासमुच्चय में भी कहा गया है कि जीव स्वयं ही विभिन्न कर्मों से प्रवृत्त होता है और उसके अनुसार कर्मफल भोगता है, उसमें ईश्वर का कर्त्तव्य सिद्ध करना निरर्थक है । अन्यथा योगादि की क्रिया और व्रतादि का कोई महत्त्व नहीं रहेगा साथ ही यह भी कहा गया है कि कर्म की सफलता उत्पन्न करने के लिए ईश्वर का अस्तित्व आवश्यक है ऐसा माना जाए तब विभिन्न कर्म विभिन्न फलों को प्रदान करने में स्वयं समर्थ न हों तो ईश्वर का अस्तित्व मानने पर भी उन कर्मों से स्वर्गनरकादि विभिन्न फलों की सिद्ध नहीं होगी । क्योंकि यदि कर्मों में स्वयं तद् तद् फल प्रदान करने का सामर्थ्य न होगा तो ईश्वर का अस्तित्व दोनों प्रकार के कर्मों के लिए समान होने से यह नियम नहीं हो सकता कि ब्रह्महत्या से नरक और यमनियमादि से स्वर्ग की प्राप्ति हो सकती है । यदि इस दोष के परिहारार्थ उन कर्मों को तद्तद् फलों को प्रदान करने में स्वयं समर्थ माना जायेगा तो फिर ईश्वर को मानने की क्या आवश्यकता होगी ? क्योंकि कर्म तो स्वयं ही तद्तद् फलों को प्रदान कर देता है ।
सृष्टिकर्त्ता के रूप में ईश्वर को माननेवाले के मत का निराकरण करते हुए कहा गया है कि ईश्वर तो वीतराग है उसे किसी वस्तु की इच्छा नहीं है तो वह सृष्टि को उत्पन्न ही क्यों करेगा ? यदि वीतराग ईश्वर में सृष्टि-रचना
१. स्वकर्मयुक्त एवायं सर्वोऽप्युप्पद्यते नरः ।
स तथा क्रियते तेन न यथा स्वयमिच्छति ॥ यथाहारः काले परिणतिविशेषक्रमवशात् । सुखं पथ्योsपथ्यो सुखमिह विद्यते तलुभृताम् || तथा धर्माधर्माविति विगतशंकामपि कथां । कथं श्रोतुं नेयां विषयविषवेगक्षतधियः ॥
२. शास्त्रवार्ता - समुच्चय, स्त० ३,
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द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ३३६.
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