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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन की परिभाषा इस रूप में दी गई है कि वस्तु को जैसा जिस रूप में जनसाधारण ग्रहण करता है वैसे ही है। इस दृष्टि से भी सत् को वर्तमान, नित्य एवं संहार या विनाश से रहित कहा गया है । इस प्रकार लौकिकवाद भी पदार्थ या द्रव्य के परिवर्तनशील एवं अपरिवर्तनशील दोनों पक्षों को स्वीकार करता है फिर भी वह उसके नित्य पक्ष को ही सत् के रूप में व्याख्यायित करता है और परिवर्तनशील पक्ष पर मौन धारण कर लेता है ।
इसी प्रकार आ० मल्लवादी ने व्याकरणकारों के पक्ष को प्रस्तुत करते हुए द्वादशार नयचक्र में द्रव्य के भवन लक्षण का निरूपण किया है ।२ वे कहते हैं कि द्रव्य भवन लक्षण होनेवाले लक्षण से युक्त है अथवा जो भवन योग्य होता है वह द्रव्य है। अर्थात् जो भव्य याने परिवर्तन को प्राप्त होता है वही द्रव्य है ।३ अन्यत्र जिसमें विकार और अवयव पाया जाता है उसे भी द्रव्य कहा जाता है। यह सब परिभाषाएँ द्रव्य को परिवर्तनशील सत्ता के रूप में व्याख्यायित करती हैं । पातंजल महाभाष्य में भी द्रव्य की परिभाषा करते हुए कहा गया है कि जहाँ गुणों का संद्राव है वहीं द्रव्य है ।५ पातंजल की यह परिभाषा द्रव्य को गुणों के समूह के रूप में व्याख्यायित करती है। इसके पूर्व में इस तथ्य का उल्लेख किया है कि जैनों में भी द्रव्य को गुणों के समूह के रूप में व्याख्यायित किया है ।६
जहाँ तक जैनदर्शन के अनुसार द्रव्य का प्रश्न है आ० मल्लवादी ने तत्त्वार्थसूत्र को आधार बनाकर द्रव्य को गुण और पर्याय स्वरूप माना है ।
१. यथालोकग्राहमेव वस्तु । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ११ २.. द्रव्यं भवनलक्षणं । वही, १५ ३. द्रव्यं च भव्ये, भवतीति भव्यं भवनयोग्यं वा द्रव्यं, द्रवति, द्रोष्यति, दुद्रावेति, द्रुः
द्रोविकारोऽवयवो वा द्रव्यं । वही, १५ ४. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १५ ५. गुणसंद्रावो द्रव्यम् । पातजंल महाभाष्य ५.१.११३
उद्धृत द्वादशारं नयचक्रं टीका, पृ० १५ ६. वही, पृ० १७ ७. गुणपर्यायवत् द्रव्यं । तत्त्वार्थसूत्र ५.३७, उद्धृत वही, पृ० १७
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