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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन आदि का भी अपना स्थान और महत्त्व है । आत्मा की स्वतन्त्रता की चर्चा करते हए इन तथ्यों को भी दृष्टिगत रखना पड़ेगा। इसी प्रकार यह सत्य है कि आत्मा कर्ता है, यदि हम एक स्वतन्त्र दृष्टि से विचार करेंगे तो यह अधिक से अधिक अपने भाव का ही कर्ता हो सकता है । शरीर आदि के माध्यम से जो क्रिया होती है उसमें व्यक्ति का प्रयत्न होते हुए भी किसी सीमा तक वे पराश्रित तो हैं ही । इस चर्चा के प्रसंग में हमें यह स्मरण में रखना चाहिए कि वे (आचार्य मल्लवादी) अपने कोई निश्चित सिद्धान्त प्रदान नहीं करते हैं । मात्र वह विभिन्न अवधारणा है, उसके प्रस्तुत करते हुए उसके सम्भावित दोषों का भी दिग्दर्शन कराते हैं । यद्यपि वह स्पष्टरूप से किसी सिद्धान्त का प्रतिपादन नहीं करते हैं किन्तु इसका फलित यह है कि इन दार्शनिक मतवादों में जो भी एकान्तदृष्टि है वह सब सदोष है और अनेकान्तदृष्टि ही निर्दोष है यह दिग्दर्शन कर देते हैं। आ० मल्लवादी ने जहाँ द्वितीय अर में पुरुष द्वैतवाद या सर्वात्मवाद की स्थापना की वहीं तृतीय अर में उन्होंने सर्वात्मवाद या पुरुषाद्वैतवाद का निरसन भी किया है । इस अर में उन्होंने आत्मा के सर्वगतत्व या आत्मा के सर्वव्यापकत्व का भी निरास किया है। इसके साथ ही पुरुष के एकत्व, अन्यत्व, अवाच्यत्व का भी निरास किया है ।
मल्लवादी के अनुसार आत्मा का लक्षण उपयोग है ।२ यदि हम सर्वात्मवाद का ग्रहण करते हैं तो हमें पुद्गल को भी आत्मा रूप मानना होगा। इस सम्बन्ध में कोई यह तर्क कर सकता है कि यदि उपयोग ही आत्मा का लक्षण है तो मति आदि ज्ञान भी आत्मा की क्रिया होने से उपयोग युक्त होंगे । पुनः यदि मति आदि ज्ञान उपयोगवान हैं तो फिर मति विकल ज्ञान के कारण के रूप में कर्म पुद्गल भी उपयोग लक्षणवाले होंगे । यदि आत्मा उपयोग लक्षणवाला है तो रूपादि आरम्भिक भाव होने से उपयोग लक्षणवाले होंगे और रूपादि का उनके विषय पुद्गल आदि से तादात्म्य होने
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० २४७--२५९ २. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३६२ ३. वही, पृ० ३६२-३६३
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