Book Title: Dvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Shrutratnakar Ahmedabad

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Page 195
________________ १७८ द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन और अर्थनय ऐसे भी द्विविध वर्गीकरण प्राप्त होते हैं । जो नय ज्ञान को प्रमुखता देता है वह ज्ञाननय है और जो नय क्रिया पर बल देता है वह क्रियानय है । उन्हें हम ज्ञानमार्गी जीवनदृष्टि और क्रियामार्गी जीवनदृष्टि कहते हैं । इसी प्रकार जो दृष्टिकोण शब्दग्राही होता है वह शब्दनय और जो नय अर्थग्राही होता है उसे अर्थनय के नाम से जाना जाता है । इस प्रकार भगवतीसूत्र जैसे प्राचीन आगम में नयों का विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर विभिन्न शैलियों में विविध प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। यहाँ हमें नयों के संक्षिप्त वर्गीकरण की शैली का ही बोध होता है। उत्तराध्ययनसूत्र में भी नयों का उल्लेख मिलता है किन्तु इसमें उसके भेद-प्रभेदों की कोई चर्चा नहीं मिलती है । इस आधार पर हम यह मान सकते हैं कि उत्तराध्ययन के सैद्धान्तिक अध्यायों के काल (ईस्वी १-२ शताब्दि) तक नयों के वर्गीकरण की संक्षिप्त शैली ही अस्तित्व में रही होगी। अपेक्षाकृत परवर्ती आगम स्थानांगसूत्र (संकलन प्रायः ईस्वी ३६३)७ और अनुयोगद्वारसूत्र (प्रायः गुप्तकाल)८ में नयों का सप्तविध वर्गीकरण हमें १. स्थानांग-समवायांग, सं० मुनि जम्बूविजयजी, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई १९८५, पृ० ३३८. २. ज्ञान मात्र प्राधान्याभ्युपगमपरा ज्ञाननयाः । जैनतर्कभाषा, सं० दलसुख मालवणिया, सरस्वती पुस्तक भण्डार, अहमदाबाद १९९३, पृ० २३. ३. क्रिया मात्र प्राधान्याभ्युपगमपराश्च क्रियानयाः ॥ जैनतर्कभाषा, पृ० २३. ४. प्राधान्येन शब्दगोचरत्वाच्छब्द नयाः । जैनतर्कभाषा, पृ० २३. ५. प्राधान्येनार्थगोचरत्वादर्थ नयाः ॥ जैनतर्कभाषा, पृ० २३. ६. सव्वनयान अनुमए रमेज्जा संजमे मुनी । उत्तराध्ययनसूत्र, सं० मुनि जम्बूविजयजी, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई १९७७, ग्रन्थांक १५, ३६. २४९, पृ० ३२६. (यहाँ अर्धमागधी भाषा अनुसार शब्द-रूप लिया गया है।) ७. सत्त मूलनया पन्नत्ता, तं जहा-नेगमे, संगेहि, ववहारे उज्जुसुते, सद्दे, समभिरूढे, एवंभूते । ठाणंगसुत्त, सं० मुनि जम्बूविजय, श्री महावीर जैन विद्यालय, बम्बई १९८५, पृ० २२५. ८. सत्त मूलणया पण्णत्ता । तं जहा–णेगमे, संगहे, ववहारे, उज्जुसुए, सद्दे, समभिरुढे, एवंभूते । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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