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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
और विशेष ऐसे दोनों दृष्टिकोणों का अन्तर्भाव माना गया था । इसलिए वह स्वतन्त्र नय या दृष्टि नहीं हो सकता । यदि नैगम द्रव्य को अखण्डित रूप में ग्रहण करता है तो वह संग्रहनय में अन्तर्निहित होगा और यदि वह वस्तु को भेदरूप में या विशेष रूप में ग्रहण करता है तो वह व्यवहारनय में आभासित होगा । इस प्रकार नैगमनय सांयोगिक नय हो सकता है, किन्तु स्वतन्त्र नय नहीं हो सकता है ।
आ० सिद्धसेन दिवाकर ने नयों का एक विभाजन सुनय और दुर्नय के रूप में भी किया है । वस्तुतः जब प्रत्येक नय - दृष्टि को किसी दर्शन विशेष के साथ संयोजित करने का प्रयत्न किया गया तो जैनसंघ में यह प्रश्न सामयिक रूप से उत्पन्न हुआ होगा कि प्रत्येक दर्शन किसी नय - विशेष पर आश्रित / आधारित है इसलिए वह दर्शन सम्यग्दर्शन ही माना जायेगा, मिथ्यादर्शन नहीं माना जायेगा । इस आपत्ति का उत्तर देने के लिए ही सामान्यतया आचार्य सिद्धसेन ने नयों के दो प्रकारों अर्थात् सुनय और दुर्नय की उद्भावना की होगी । क्योंकि किसी नय विशेष को स्वीकार करके भी दृष्टिकोण आग्रही हो तो वह दृष्टिकोण सम्यक् नहीं हो सकता । जो नय अथवा दृष्टि अपने को ही एकमात्र सत्य माने और दूसरे का निषेध करे, वह दृष्टि सम्यक् दृष्टि या सुनय नहीं हो सकती । अन्य दर्शन यदि अपने ही दृष्टिकोण को एकमात्र सत्य मानेंगे तो वे नयाश्रित होकर भी सुनय की कोटि में नहीं रखे जायेंगे, अपितु उनका वह दृष्टिकोण दुर्नय कहा जायेगा क्योंकि वह अनेकान्तदृष्टि का निषेधक होगा । आ० सिद्धसेन के अनुसार जो नय दूसरे नयों अर्थात् दृष्टियों का निषेधक नहीं होता, वह सुनय होता है । उसके विपरीत जो नय अपने अतिरिक्त दूसरे नयों का निषेध करता है या उन्हें मिथ्या मानता है, वह नय दुर्नय मे आरोपित होता है ।
आचार्य सिद्धसेन के नय - विवेचन की विशेषता यह है कि नयदृष्टि
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जह एए तह अण्णे पत्तेयं दुण्णया णया सव्वे ।
हंदि हु मूलणयाणं पण्णवणे वावडा ते वि ॥
२. सन्मतिप्रकरण- १.२२ - २८.
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सन्मतिप्रकरण- १.१५.
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