Book Title: Dvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Shrutratnakar Ahmedabad

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Page 212
________________ उपसंहार १९५ और अक्रियावाद की यह परम्परा अति प्राचीन है । इसका उल्लेख सूत्रकृतांग जैसे प्राचीन आगमों में भी मिलता है । जहाँ अक्रियावादी आत्मा को कूटस्थ नित्य या अकर्ता-भोक्ता मानते हैं वहाँ क्रियावादी उन्हें कर्ता-भोक्ता के रूप में मानते हैं । आ० मल्लवादी ने क्रियावाद और अक्रियावादी की चर्चा में न केवल आत्मा के कर्तृत्व भोक्तृत्व के विवाद को उठाया है किन्तु ज्ञान, मोह, क्रिया के सम्बन्धी विवाद को भी उठाया है। हम यह पाते हैं कि भारतीय चिन्तन में जहाँ आत्म अकर्तृत्ववादी विचारक ज्ञानवादी रहे हैं वहाँ आत्मा को कर्ता एवं भोक्ता माननेवाले विचारक क्रियावादी रहे हैं। आ० मल्लवादी इस सम्बन्ध में ऐकान्तिक दृष्टिकोण न रखकर ज्ञान और क्रिया के समन्वय से मुक्ति की अवधारणा को प्रस्तुत करते हैं । अष्टम अध्याय-सामान्य और विशेष की समस्या प्रस्तुत शोधप्रबन्ध के अष्टम अध्याय में सत्ता के सामान्य और विशेष स्वरूप को लेकर परस्पर विरोधी दृष्टिकोणों का प्रस्तुतीकरण किया गया है। जहाँ सामान्यवादी सत्ता को सामान्य मानते हैं वहाँ विशेषवादी सामान्य को काल्पनिक बताकर सत्ता का स्वरूप विशेष ही बताते हैं । आ० मल्लवादी क्षमाश्रमण ने अपने ग्रन्थ द्वादशार-नयचक्र में सामान्यवाद के रूप में प्राचीन सांख्यों के सर्वसर्वात्मक वाद का प्रस्तुतीकरण किया है । जबकि विशेषवाद के रूप में बौद्धों के दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। उन्होंने सामान्य और विशेष दोनों स्वीकार करनेवाले नैयायिकों का विचार किया है साथ ही अपनी समीक्षा में यह बताया है कि जहाँ सामान्यवादी विशेष को अस्वीकार करने के कारण सर्वसर्वात्मक दोष से ग्रसित होता है वहाँ विशेषवादी सामान्य को अस्वीकार करने के कारण जो जाति की अवधारणा है उसे ही समाप्त कर देता है । आ० मल्लवादी की दृष्टि में सामान्य और विशेष दोनों की पृथक्-पृथक् सत्ता माननेवाले नैयायिकों का दृष्टिकोण भी युक्ति-संगत नहीं है । सामान्य और विशेष न तो एक-दूसरे से पूर्णतः पृथक् हैं और न दोनों अभिन्न ही हैं। इस सम्बन्ध में हमने सामान्य और विशेष के सम्बन्ध में भी भारतीय दार्शनिकों के विचारों का प्रस्तुतीकरण और समीक्षा की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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