Book Title: Dvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Shrutratnakar Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 200
________________ नयविचार १८३ के सम्यक् या मिथ्या होने का आधार उनके द्वारा अन्य नयों के निषेध पर आधारित है । जो नय अपने अतिरिक्त अन्य नयों या दृष्टिकोणों को स्वीकार करता है, वह सम्यक् होता है । इसी आधार पर उन्होंने जैनदर्शन को मिथ्यामत समूह के रूप में प्रतिपादित किया है । इसका तात्पर्य यह है कि विभिन्न नय दृष्टियाँ जो अपने आप में केन्द्रित रहकर अन्य की निषेधक होने के कारण मिथ्यादृष्टि होती हैं, वही जब एक-दूसरे से समन्वित हो जाती हैं तो सम्यक् दृष्टि बन जाती है । इसी अर्थ में आचार्य सिद्धसेन ने जैनदर्शन को मिथ्यामत-समूह कहा । क्योंकि वह अनेकान्त के आधार पर विभिन्न नय या दृष्टिकोण को समन्वित कर लेता है । आचार्य सिद्धसेन के नय चिन्तन की एक विशेषता यह है कि उन्होंने नय चिन्तन को एक व्यापक परिमाण प्रदान किया । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दृष्टि के सौ-सौ भेदों की कल्पना आगमिक व्याख्या साहित्य में उपलब्ध होती है । इसी प्रकार यदि अन्य नयों के भी सौ-सौ नय कल्पित किए जायें तो नयों के सर्वाधिक भेदों के आधार पर सात सौ नयों की भी कल्पना समुचित मानी जा सकती है । आ० मल्लवादी के द्वादशार-नयचक्र में नयों के इन सात सौ भेदों का निर्देश मात्र प्राप्त होता है । संभवतः नयों के सात सौ भेद करने की यह परम्परा द्वादशारनयचक्र के पूर्व की होगी । हम देखते हैं कि आ० सिद्धसेन दिवाकर ने सर्वप्रथम एक कदम आगे बढ़कर यह कहा था कि नयों की संख्या असंख्य हो सकती है । वस्तुतः वस्तु के प्रतिपादन की जितनी शैलियाँ हो सकती हैं १. भई मिच्छादंसणसमूहमइयस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवओ संविग्गसुहाहिगम्मस्स ॥ सन्मतिप्रकरण- ३.६९. २. अर्हत्प्रणीत नैगमादि प्रत्येक शत संख्य प्रभेदात्मक सप्तनयशतारनयचक्राध्ययनानुसारिषु । नयचक्र-वृत्ति, पृ० ८८६. एक्केको य सतविधो. (आव० नि० ७५९).....ति तस्य शतभेदस्य सप्तनयशतारनयचक्रे । नयचक्र-वृत्ति, माइल्ल धवल, सं० पं० कैलाशचन्द्र शास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ, काशी १९७१, पृ० ७८९. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 198 199 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226