________________
१८१
नयविचार यह कह सकते हैं कि उमास्वाति के सामने यह प्रश्न उपस्थित हुआ होगा कि जो नैगमादि सात नय हैं ये उस समय के आगमों में उल्लिखित नहीं थे। अत: यह चर्चा चलती होगी कि यह नय आगम के अनुकूल है या प्रतिकूल है । इसी बात का निराकरण उमास्वाति ने इस प्रकार किया ये नय आगम में तो नहीं हैं किन्तु आगम के अनुसार वस्तु-तत्त्व का विवेचन करने के कारण आगम के प्रतिकूल भी नहीं हैं।
इस समग्र चर्चा से हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि जैन परम्परा में नयों का अवतरण वस्तु-तत्त्व के विभिन्न पक्षों को पृथक्-पृथक् दृष्टि से व्याख्याबद्ध करने के लिए हुआ है । वस्तु की परिणामियता ही अलग-अलग नय दृष्टियों का आधार है । नयों का विभिन्न दर्शनों के साथ संयोजन करने की शैली अपेक्षाकृत परवर्ती है।
सन्मतिप्रकरण में नयों के विभिन्न भेद-प्रभेदों की और उनकी ज्ञानसीमा का विस्तार से विवेचन किया है । नयों का इतना विस्तृत विवेचन न तो आगमिक साहित्य में मिलता है और न तत्त्वार्थाधिगमसूत्र जैसे आरंभिक दर्शनग्रन्थ में उपलब्ध होता है । आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने मूल में आगम का अनुसरण करते हुए दो नयों का प्रतिपादन किया और दार्शनिक युग के नैगम आदि नयों का इन दो मूल नयों में समावेश किया । आ० सिद्धसेन की विशेषता यह है कि वे नैगमादि सात नयों में नैगमनय का निषेध करके मात्र छह नयों को ही स्वीकार करते हैं । नैगमनय को अस्वीकार करने का मूलभूत कारण यह हो सकता है कि कोई भी नय वस्तु के स्वरूप पर कोई एक ही दृष्टिकोण से विचार कर सकता है। क्योंकि नैगम में सामान्य
१. सभाष्य तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम्, भाषानुवाद, पं० खूबचन्द्रजी, श्रीमद्ाजचन्द्र आश्रम, अगास
१९३२, पृ० ६३. १. सन्मतिप्रकरण, प्रथम काण्ड तथा तृतीय काण्ड । ३. तित्थयर वयण संगह-विसेस पत्थारमूलवागरणी । दव्वढिओ य पज्जवणओ य सेसा
विकप्पा सिं ॥
सन्मतिप्रकरण- १.३. ४. सन्मतिप्रकरण- १.४-५.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org