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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन और शब्द ऐसे पाँच नयों में विभाजित किया गया है । फिर नैगम के दो भेदों और शब्द के तीन-तीन भेदों का भी उल्लेख मिलता है । ज्ञातव्य है कि सर्वार्थसिद्धि-मान्य पाठ में इन दो सूत्रों के स्थान पर एक ही सूत्र प्राप्त होता है और इसमें सात नयों का निर्देश एक साथ ही कर दिया गया है ।
परवर्ती जैनदार्शनिक ग्रन्थों में विभिन्न नय दृष्टियों को भिन्न-भिन्न दार्शनिक मन्तव्यों के साथ संयोजित करके यह कहा जाता है कि वेदान्त संग्रहनय की अपेक्षा से, बौद्ध दर्शन ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा से, न्यायवैशिषिक दर्शन नैगमनय की अपेक्षा से वस्तु-तत्त्व का विवेचन करते हैं । किन्तु विभिन्न नयों को विभिन्न दर्शनों से संयोजित करने की यह शैली परवर्ती काल की है। तत्त्वार्थभाष्य के काल तक हमें इसका उल्लेख नहीं मिलता है। तत्त्वार्थभाष्य में यह प्रश्न उपस्थित किया गया है कि नैगमादि नय तन्त्रान्तरीय हैं या स्वतन्त्र ? और इसका उत्तर देते हुए उमास्वाति कहते हैं: "नैगमादि नय न तो तन्त्रान्तरीय हैं और न स्वतन्त्र ही हैं। क्योंकि ज्ञेय पदार्थ का स्वरूप ही ऐसा है कि ज्ञेय पदार्थ को भिन्न-भिन्न दृष्टियों से जानने के लिए ही इन नयों का आविर्भाव हुआ है"४ । इससे यह फलित होता है कि वाचक उमास्वाति के काल तक विभिन्न दर्शनों को विभिन्न नयों से संयोजित करने की शैली का विकास नहीं हुआ था। यह एक परवर्ती विकास है। वैसे तन्त्र शब्द का एक अन्य अर्थ करके इस विषय पर एक अन्य दृष्टि से भी विचार किया जा सकता है। प्राचीन ग्रन्थों में आगम शब्द के लिए भी तन्त्र शब्द का प्रयोग हआ है। जैसे हरिभद्रसूरि ने यापनीय-तन्त्र का उल्लेख किया है । इस आधार पर हम
१. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र- १.३४. २. तत्त्वार्थाधिगमसूत्र- १.३५. ३. नैगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दसमभिरूद्वैवम्भूता नयाः ॥ सर्वार्थसिद्धि, सं० पं० फूलचंद्र
सिद्धान्तशास्त्री, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली १९९१, १.३३. ४. अत्राह-किमेते तन्त्रान्तरीया वादिन आहोस्वत्स्वतन्त्रा । एव चोदकपक्षग्राहिणो मतिभेदेन
विप्रधाविता इति । आलोच्यते-नैते तन्त्रान्तरीया नापि स्वतन्त्रा मतिभेदेन । विप्रधाविताः । ज्ञेयस्य त्वर्थस्याध्यावसायान्तराण्येतानि । सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ॥ पृ० ६३. स्त्रीग्रहणं तासामपि...यथोक्तं यापनीय तन्त्रे । ललितविस्तरा, सं० विक्रमसेन वि० म० सा०, भुवनभद्रंकर साहित्य प्रचार केन्द्र, मद्रास वि० सं० २०५१, पृ० ४२७-४२८.
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