Book Title: Dvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Shrutratnakar Ahmedabad

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Page 189
________________ १७२ द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन पड़ेगा किन्तु जैनदृष्टि ऐसी शून्यता की अवधारणा का निषेध करती है। वह कहती है कि जो सत् है वही असत् है जो एक है वही अनेक है । जो कार्य है वही कारण है। दूसरे शब्दों में सत् भी है, असत् भी है, एक भी है, अनेक भी है। सामान्य भी है विशेष भी है, कार्य, भी है कारण भी है और जब तत्त्व प्रतिपादन, की यह भावात्मक शैली अपनाते हैं तब वस्तु की अवक्तव्यता की भावना निरस्त हो जाती है और वह सापेक्ष रूप से वक्तव्य बन जाती है। क्योंकि यदि वस्तु सर्वथा अनिर्वचनीय होती तो फिर उसका निर्वचन कैसा किया जाता था ? किन्तु व्यवहार में हम सब भाषा के माध्यम से वस्तु के स्वरूप का निर्वचन करते हैं अतः वस्तु को सर्वथा अनिर्वचनीय मानने के सिद्धान्त का हमारे अनुभव से विरोध आता है । दूसरे यदि वस्तु को सर्वथा अवक्तव्य माना जायेगा तो फिर उसे अवक्तव्य कहना भी कठिन हो जायेगा । क्योंकि उसके सम्बन्ध में अवक्तव्यता का प्रतिपादन भी एक प्रकार की वक्तव्यता ही है । यदि वस्तु को सर्वथा न सत्, न असत्, न एक, न अनेक, न सामान्य, न विशेष माना जायेगा तो फिर वस्तु के स्वरूप का निर्धारण ही नहीं किया जा सकेगा और वस्तु सपक्ष्य के समान अवक्तव्य हो जायेगी । इसलिए वस्तु में संपेक्ष रूप में अवाच्यता स्वीकार करना आवश्यक है। आ० मल्लवादी यह मानते हैं कि वस्तु सम्पूर्ण रूप में वाच्य नहीं है किन्तु उसके साथ यह भी मानते हैं कि वह पूर्णतया अवाच्य भी नहीं है । वे अपने ग्रन्थ के नवम अर में जिस अवक्तव्यता का मण्डन करते हैं और जिस अवक्तव्यता का खण्डन करते हैं वह निरपेक्ष या एकान्त अवक्तव्यता है। इस प्रकार उनके ग्रन्थ में नवें अर में अवक्तव्यता का मण्डन और दशवें अर में अवक्तव्यता का खण्डन विरोधाभासपूर्ण नहीं है किन्तु जिस अवक्तव्यता का स्थापन किया गया है वह सापेक्ष है और जिस अवक्तव्यता का खण्डन किया गया है वह निरपेक्ष है, दूसरे शब्दों में उनका प्रतिपाद्य यह है कि निरपेक्ष अवक्तव्यता की अवधारणा समुचित नहीं है किन्तु सापेक्ष अवक्तव्यता से उनका विरोध नहीं है । वस्तु में कथञ्चित वाच्यता और अवाच्यता को स्वीकार करना यही आ० मल्लवादी का निष्कर्ष है जो अनुभूति के स्तर पर खरा उतरता है । १. द्वादशारं नयचक्रं० दशमो नियमविध्यर: पृ० ७६५-७७९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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