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द्वादश अध्याय
नयविभाजन
निर्ग्रन्थ दर्शन में वस्तुतत्त्व को अनन्तधर्मात्मक माना गया है। प्रत्येक वस्तु अनेकानेक भावात्मक और अभावात्मक गुणधर्मों से युक्त होती है । इतना ही नहीं अपितु वस्तु में परस्पर विरोधी गुणधर्म भी एक ही समय में पाए जाते हैं । वस्तु की यह अनन्तधर्मात्मकता ही अनेकान्तवाद का तात्त्विक आधार है । वस्तु में अनेक गुणधर्मों के होने पर भी जब उसका कथन करना होता है तब किसी एक धर्म को, किसी एक अपेक्षा विशेष को प्रमुख बनाकर कथन किया जाता है । वस्तु के विविध पक्षों में जब किसी एक पक्ष को ही प्रधान बनाकर हम कथन करते हैं तब वस्तुतः अन्य पक्षों या गुणधर्म का अभाव नहीं हो जाता । इस अनन्तधर्मात्मक वस्तु की अभिव्यक्ति के लिए किसी ऐसी कथन-शैली की आवश्यकता होती है जो वस्तु के किसी एक गुणधर्म का विधान करते हुए अन्य गुणधर्मों का निषेध न करे । दूसरे शब्दों में कहा जाय तो वस्तु के सम्बन्ध में जो सापेक्षित कथन किया जाता है वह किसी अभिप्राय-विशेष या दृष्टिकोण-विशेष को ध्यान में रखकर किया जाता है । वक्ता का यह अभिप्राय-विशेष किंवा दृष्टिकोण-विशेष ही नय कहलाता
१. अनन्तधर्मात्मकमेव तत्त्वमतोऽन्यथा सत्त्वमसूपपादम् । हेमचन्द्र, अन्ययोगव्यवच्छेदिका
श्लो० २२, सं० मुनिश्री सूर्योदयविजयजी, चंदननी सुवास, श्री श्वे० मू० पू० जैन संघ, कराड सं० २०२०, पृ० २४१.
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