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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन सभी से वाह्य है ।१ सिंहसूरि ने इसकी जैनदृष्टि से व्याख्या की है ।२ आगे आ० मल्लवादी के आत्मा के वाचक अर्हत् शब्द३ की व्याख्या करते हुए अर्हत् शब्द को पावन अर्थ में ग्रहण किया है और बताया है कि विशुद्धि और प्रकर्ष विशेष के कारण वह देवता के अर्थ में भी ग्रहण किया गया है। सिंहसूरि ने इसकी टीका में अहत्, बुद्ध, ब्रह्मा, विष्णु, वर्धमान आदि शब्दों की व्याख्या की है। वह लिखते हैं कि सर्वलोक द्वारा विशिष्ट पूजा के योग्य होने के कारण उसे अर्हत् कहा जाता है ।५ बोध को प्राप्त करने के कारण उसे बुद्ध कहा जाता है ।६ वृद्धि करने के कारण वह वर्धमान कहलाता है। बृहत् होने से उसे ब्रह्मा कहा गया है ।८ विश्वरूपी आत्मा के कारण उसे विष्णु कहा गया है । सर्व पदार्थों में व्याप्त होने के कारण भी विष्णु कहलाता है ।१० स्वामी होने के कारण उसे ईश्वर कहा जाता है ।११ इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य सिंहसूरि ने शुद्ध आत्मभाव के वाचक विभिन्न शब्दों की व्याख्या करके विभिन्न धर्म और दार्शनिक परम्पराओं के बीच समन्वय करने का प्रयास किया है।
आ० मल्लवादी ने संसार रूपी क्रिया के करने के कारण आत्मा को
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१. तदेजति तनैजति नद्दूरे तदुपान्तिके । ___ तदन्तरस्य सर्वस्य तदु सर्वस्यास्य बाह्यतः ॥ शुक्लयजु० वा० सं० ४०।५, द्वादशारं
नयचक्र० पृ० १९२ २. वही० पृ० १९२ ३. अर्हण बोधनेत्यदिविशुद्धि प्रकर्षविशेषाद देवतापि स एव, यावदर्हन्नपि भवतीति
सम्भाव्यते । वही० पृ० १९२ ४. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १९२ ५. अर्हति सर्वलोकातिशयपूजा इत्यर्हन् ।
वही० पृ० १९२ ६. वुध्यत इति बुद्धः ।
वही० पृ० १९२ ७. वर्धनाद् वृहत्त्वाद् ब्रह्मा वर्धमानो वा ।
वही० पृ० १९२ ८. वर्धनाद् वृहत्त्वाद् ब्रह्मा वर्धमानो वा ।
वही० पृ० १९२ ९. व्याप्नोतीति विष्णुर्ज्ञानात्मनैव सर्वानर्थान् ।
वही० पृ० १९२ १०. वही० पृ० १९२ ११. ईशनादीश्वरः । वही० पृ० १९२
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