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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन या विषय की वाच्यता सामर्थ्य कितनी है ?
दार्शनिकदृष्टि से यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि क्या यह शब्द-प्रतीक अपने वाच्य-विषय या अर्थ को पूर्णतया अभिव्यक्त करने में समर्थ है ? क्या घड़ी शब्द घड़ी नामक वस्तु को या प्रेम शब्द प्रेम नामक भावना को अपनी समग्रता के साथ श्रोता को प्रस्तुत कर पाता है ? यह प्रश्न दार्शनिकदृष्टि से अति प्राचीनकाल से ही चचित रहा है । एक ओर यदि हम यह मानते हैं कि शब्द में अपने अर्थ या वाच्य विषय को अभिव्यक्त करने की सामर्थय नहीं है तो भाषा की उपयोगिता एवं प्रमाणिकता पर ही प्रश्नचिह्न लग जाता है । मानव समाज में आज जो भी विचार और भावों के संप्रेषण का कार्य होता है उसमें भाषा एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। यदि हम इस प्रश्न पर निषेधात्मक दृष्टि से विचार करके यह मानते हैं कि भाषा में अपने वाच्य विषय को अभिव्यक्त करने की सामर्थ्य ही नहीं है तो फिर भाषा का कोई अर्थ नहीं रह जाता है । यही कारण था कि जैन विचारकों ने बौद्धों के इस मत को अस्वीकार कर दिया कि शब्द अपने अर्थ या वाच्य विषय का संस्पर्श ही नहीं करते हैं । साथ ही यह मीमांसकों के समान यह मानने को भी सहमत नहीं थे कि शब्द अपने वाच्य विषय या अर्थ का एक सम्पूर्ण चित्र श्रोता के सामने प्रस्तुत करने में समर्थ है। सामान्यतया जैन दार्शनिकों ने यह माना कि शब्द और उसके द्वारा संकेतिक अर्थ में एक सम्बन्ध तो है या दूसरे शब्दों में अपने वाच्यार्थ को संकेतिक करने की सामर्थ्य तो है किन्तु यह भी सत्य है कि शब्द अपने वाच्यार्थ को सम्पूर्ण रूप में अभिव्यक्त करने में समर्थ भी नहीं होता है । इसके दो कारण हैं एक तो शब्द वाच्यार्थों के मात्र प्रतीक होते हैं। उनका वाच्यार्थ से कोई तादात्म्य नहीं होता
और यदि उनमें कोई तादात्म्य नहीं होगा तो उनमें अपने वाच्यार्थ को पूरी तरह कहने की शक्ति भी नहीं है। दूसरे शब्द में शब्द अपने वाच्य विषय को कहकर भी नहीं कह पाता है । इसी को ही जैन दार्शनिकों ने यह कहकर अभिव्यक्त किया है कि शब्द अपने अर्थ का वाचक होकर भी समग्र रूप से वाचक नहीं होता है । जैसे घड़ी शब्द घड़ी का वाचक होकर भी उसका स्थान नहीं लेता। इस तथ्य को निम्न उदाहरण से समझा जा सकता है जैसे किसी देश का नक्शा और उस नक्शे में रेखांकित पहाड़ नदी आदि उस देश के पहाड़, नदी आदि
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