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एकादश अध्याय
सत्ता की वाच्यता का प्रश्न
प्राणियों में अपनी अनुभूतियों और भावना की अभिव्यक्ति एक सहज प्रवृत्ति है । मनुष्य में यह प्रवृत्ति अधिक विकसित रूप में पाई जाती है । सामान्यतया अन्य प्राणी अपनी भावनाओं और अनुभूति की अभिव्यक्ति बातों, शारीरिक संकेतों द्वारा या तो ध्वनि संकेत द्वारा करते हैं। इन्हीं संकेतों द्वारा मनुष्यों ने भाषा का विकास किया । मनुष्य शब्द-प्रतीकों के माध्यम से जो कि सार्थक ध्वनि संकेतों के रूप हैं अपने विचारों एवं भावों की अभिव्यक्ति करता है । ये सार्थक ध्वनि - संकेत ही भाषा का रूप ग्रहण करते हैं । मनुष्य ने व्यक्तियों, वस्तुओं, तथ्यों, घटनाओं, भावनाओं एवं क्रियाओं के लिए कुछ शब्द - प्रतीक बना लिए हैं । भाषा इन्हीं शब्द- प्रतीकों का एक सुनियोजित खेल है । इन शब्दप्रतीकों में अपने वाच्य विषय को अभिव्यक्त करने की शक्ति मानी जाती है, किन्तु ये शब्द - प्रतीक अपने वाच्य विषय का किस सीमा तक और किस रूप से अभिव्यक्त कर पाते हैं यह एक विचारणीय प्रश्न रहा है । सामान्यतया भाषा इन्हीं शब्द प्रतीकों की एक नियमबद्ध व्यवस्था है जो वक्ता के द्वारा संप्रश्रिय भावों का ज्ञान श्रोता को कराती है । भाषा में प्रयुक्त शब्द- प्रतीक किस सीमा तक अपने वाच्य विषयों से या वाच्यार्थ से सम्बन्धित होते हैं इस विषय में हम पूर्व अध्याय शब्दार्थ सम्बन्ध में विचार कर चुके हैं। यहाँ हम मुख्य रूप से यह देखने का प्रयास करेंगे कि भाषा में प्रयुक्त शब्द प्रतीकों की अपने अर्थ
१. जैनभाषादर्शन, पृ० १
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