Book Title: Dvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Author(s): Jitendra B Shah
Publisher: Shrutratnakar Ahmedabad

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Page 186
________________ सत्ता की वाच्यता का प्रश्न १६९ विस्तार में न जाकर यह देखना चाहेंगे कि इस वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता के सम्बन्ध में हमारे विवेच्य आचार्य मल्लवादी और उनके ग्रन्थ द्वादशार नयचक्र का क्या दृष्टिकोण है । आचार्य मल्लवादी ने वैसे तो अनेक प्रसंगो में वस्तु की अनिर्वचनीयता की चर्चा की है। किन्तु विशेषरूप से अपने ग्रन्थ के नवें अर में वस्तु की अनिर्वचनीयता की प्रतिस्थापना की है और दशवें अर में उस अनिर्वचनीयता की समीक्षा प्रस्तुत की है । आचार्य की यह एक विशिष्ट शैली है कि वह पहले किसी पक्ष की स्थापना करते हैं बाद में उसका खण्डन । नवें अर में वह विशेषरूप से इस बात पर बल देते हैं कि वस्तुतत्त्व का स्वरूप ही कुछ ऐसा है कि वह शब्द का वाच्य नहीं बनाया जा सकता । किन्तु यह वस्तु की अनिर्वचनीयता की एकान्त पक्ष न बन जाए या वस्तुतत्त्व को पूर्णतः अवाच्य न मान लिया जाए इसलिए वह अपने ग्रन्थ के दशवें अर में इस वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता की अवधारणा का खण्डन करते हैं और इस माध्यम से यह स्पष्ट करते हैं कि वस्तु न तो पूर्णत: वाच्य है और न पूर्णतः अवाच्य । आगे हम विस्तार से उनके ग्रन्थ के आधार पर इस सम्बन्ध में विचार करेंगे । वस्तु की अनिर्वचनीयता की चर्चा करते हुए वे निम्न समस्याएँ प्रस्तुत करते हैं । सर्वप्रथम वस्तु को न तो सर्वथा भावरूप कहा जा सकता है और न सर्वथा अभाव रूप । प्रत्येक वस्तु में कुछ गुणधर्मों का सद्भाव होता है और कुछ गुणधर्मों का अभाव । दूसरे शब्दों में वस्तु में भाव-पक्ष भी होता है अभाव-पक्ष भी । वस्तु भावात्मक और अभावात्मक गुणधर्मों का समुच्य है। किन्तु भाषा की दृष्टि से प्रतिपादन करते हुए हमें उसे विधिरूप में कहना होता है या निषेध रूप में । सत्ता में भावपक्ष और अभाव-पक्ष एक समय रहे हुए हैं किन्तु भाषा में उन्हे क्रमपूर्वक ही कहा जा सकता है । पुनः तार्किकरूप से जो भावरूप होता है वह अभावरूप कैसे हो सकता है और जो अभावरूप १. एकत्वान्यत्वोभयत्वानुभयत्वप्रतिषेधेन च प्रधानोपसर्जन भावो पि प्रतिविद्ध एव । तस्मात् सर्वथाप्य वक्तव्य तैव । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७५२ सामान्यविशेषैकत्वान्यत्वानेकात्मकस्य वस्तुनो वाचा वक्तुमशक्यत्वात् । वही० टीका० पृ० ७६३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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