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आत्मा की अवधारणा
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से उसे भी उपयोग लक्षणवाला मानना पड़ेगा । और इस प्रकार सर्व आत्मवाद का प्रसंग आ जायेगा । अतः यद्यपि आत्मा और कर्म में तादात्म्य है किन्तु वह एकान्त रूप से नहीं है । आत्मा और कर्म कथञ्चित् अभिन्न और कथञ्चित् भिन्न हैं । उनको पूर्णतः अभिन्न नहीं कहा जा सकता । वस्तुतः आत्मा और कर्म में पूर्णतः अभिन्नता और पूर्णतः भिन्नता दोनों ही मानने पर तार्किक असंगतियाँ आती हैं । समस्त आत्मव्यापारों में यदि कर्म को ही एकमात्र कारण माना जाय तो पुरुषार्थ की हानि होगी । और यदि पुरुषार्थ को ही एकमात्र कारण माना जाय तो पुरुषार्थ के कारण जो उपलब्धियाँ होनी चाहिएँ उनमें जो बाधा आती है उसकी व्याख्या सम्भव नहीं होगी । आत्मा में जो औदायिकादि भाव उत्पन्न होते हैं वे मात्र आत्मा के उपयोग लक्षण के कारण नहीं हैं, उसमें किसी सीमा तक कर्म भी कार्य-कारण के रूप में कार्य करता है | अतः आत्मा और कर्म को न तो पूर्णतः भिन्न कहा जाता है और न पूर्णत: अभिन्न ही । ३
आ० मल्लवादी ने इसके साथ-साथ आत्मा के पुद्गल, आकाश, धर्म, अधर्म के पारस्परिक सम्बन्ध को स्पष्ट करने का प्रयास किया है । वे चतुर्थ विधिनियम अर में लिखते हैं कि यदि अवगाह लक्षण की दृष्टि से विचार करें तो आत्मा, पुद्गल, धर्म, अधर्म और आकाश सभी एक क्षेत्रावगाही होने के कारण परस्पर एकतत्व को प्राप्त हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो वे अपने विशिष्ट लक्षणों की दृष्टि से अलग-अलग होकर भी एक क्षेत्रावगाही होने के कारण एक ही तत्व के भेद कहे जा सकते हैं । यदि अवगाहक अवगाह्य और अवगाह अविभक्त होने से एक रूप ही है या एक ही है तो फिर द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय में भेद मानना मिथ्या होगा और इस प्रकार सर्वात्मकता के सिद्धान्त को बल मिलेगा किन्तु स्वसत्ता के अस्तित्व की दृष्टि से एक होते हुए भी अपने विशदत्व के कारण भिन्न-भिन्न
१. वही, पृ० ३६३
२. वही, पृ० ३७०
३. वही, पृ० ३७१-३७२
४. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३६९ - ३७०
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