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शब्दार्थ सम्बन्ध की समस्या अनुभवों के आधार पर यह सिद्धान्त समीचीन प्रतीत नहीं होता। - जैन दार्शनिकों की दृष्टि में शब्द और अर्थ में न तो एकान्त रूप से भिन्नता है और न एकान्त रूप से अभिन्नता । यदि शब्द अपने अर्थ का स्पर्श ही न करते हों तो फिर भाषा की प्रयोजनशीलता पर ही प्रश्न चिह्न लग जाता है। दूसरी ओर शब्द और अर्थ को अभिन्न मानने पर उसका अनुभूति विरोध आता है । अतः दोनों मत युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होते हैं ।
जैन दार्शनिकों ने शब्द और उसके वाच्यार्थ के सम्बन्ध में यद्यपि तद्रूपता और तदुत्पत्ति का सम्बन्ध नहीं माना फिर भी वे दोनों में वाच्यवाचक सम्बन्ध को स्वीकार करते हैं और इस प्रकार वे बौद्धों के उस सिद्धान्त से कि शब्द अर्थ का स्पर्श ही नहीं करते अपने को अलग रूप में स्थापित करते हैं । जैन दार्शनिकों का कथन है कि यदि शब्द और उसके वाच्यार्थ में कोई सम्बन्ध ही नहीं हो तो फिर शब्द को सुनकर वाच्य वस्तु का स्मरण किस प्रकार होता है ? यह ठीक है कि शब्द के उच्चारण या श्रवण से हमें उस वस्तु की अनुभूतियाँ नहीं होती किन्तु अनुभूति का स्मरण तो अवश्य ही होता है । यहाँ स्वाभाविक रूप से एक नया प्रश्न उपस्थित होता है कि शब्द अपने अर्थ का बोध किस प्रकार कराते हैं ? इस सम्बन्ध में बौद्धों ने शब्द का सामान्य के साथ तदुत्पत्ति लक्षण सम्बन्ध माना और यह माना कि सामान्य का विशेष के साथ एकत्व अध्यवसाय होने से शब्द का विशेष के साथ साक्षात् सम्बन्ध न होने पर शब्द को सुनकर वस्तु विशेष का बोध और वस्तु विशेष को देखकर वस्तु विशेष का बोध हो जाता है । किन्तु उनके दर्शन में जो सामान्य के माध्यम से शब्द और अर्थ विशेष में जो सम्बन्ध बनाने का प्रयत्न करते हैं वह सामान्य भी वास्तविक नहीं है । पुनः उसका प्रत्यक्ष निर्विकल्प है । दूसरे शब्द में वह शब्द संसर्ग से रहित है । क्योंकि भाषा विकल्प पर आधारित है । अतः बौद्धों के अनुसार न तो अर्थ को देखकर उसके वाचक शब्द का बोध हो सकता है और न तो शब्द को सुनकर उसके अर्थ का बोध हो सकता है । शब्द और अर्थ को लेकर चाहे हम तादात्म्य तदुत्पत्ति सम्बन्ध न मानें किन्तु हमें वाच्य-वाचक सम्बन्ध तो मानना होगा।
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