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आत्मा की अवधारणा
१४९ प्रस्तुतीकरण करते हुए उनके मन्तव्य को ही प्रस्तुत किया है । साथ ही सर्वात्मवाद को मानने पर जो दार्शनिक कठिनाई उत्पन्न होती है उसका चित्रण आ० मल्लवादी और उनके टीकाकार सिंहसूरि ने किया है ।१ और पुनः सर्वात्मवाद की ओर से उन समस्याओं का उत्तर भी दिया है; यदि सभी आत्मा ही है तो आत्मा स्वयं आत्मा के द्वारा कैसे सृजन करेगा, कैसे संहार करेगा और कैसे बन्धन में आयेगा तथा कैसे मुक्त होगा? जिस प्रकार अंगुलि का अग्रभाग अंगुलि का स्पर्श नहीं कर सकता और जिस प्रकार तलवार स्वयं को काट नहीं सकती उसी प्रकार सर्वात्मवाद की अवधारणा में सर्जन, संहार, बन्धन-मोक्ष आदि सम्भव नहीं होंगे और हमें शक्तिभेद के आधार पर कारकभेद को मानना होगा । इसके उत्तर में सर्वात्मवाद की ओर से यह कहा जा सकता है कि जिस प्रकार से रेशम कीट स्वयं ही अपना बन्धन तैयार करता है और स्वयं ही मुक्त होता है उसी प्रकार आत्मा भी स्वयं ही बन्धन में आता है और स्वयं ही मुक्त होता है और स्वयं ही सृष्टि करता है और स्वयं ही संहार करता है । अत: यह जो कुछ है सब आत्मा है यह मानने में कोई बाधा नही आती है।
___औपनिषदिक सर्वात्मवाद की अवधारणा को प्रस्तुत करते हुए आचार्य मल्लवादी आगे कहते हैं कि वह पुरुष अपने स्वरूप का परित्याग नहीं करते हुए भी अनेक रूप में अभिव्यक्त होता है । वह चेतन अचेतन आदि अनेक रूप हैं ।३ आगे वे शुक्लयजुर्वेद की एक कारिका को उद्धत करते हुए यह कहते हैं कि वह चलता है, स्पन्दन करता भी है और स्पन्दन नहीं भी करता, वह दूर भी है और दूर नहीं भी, वह सभी के अन्तर में उपस्थित है और वह
१. पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ॥ शुक्ल यजु० सं० ३१.२, उद्धृत० द्वादशारं नयचक्रं,
पृ० २४७-२६० २. अतएव तस्य सर्वत्वसम्प्रसिद्धया आत्माद्याख्यता, मृदनुत्तीर्णघट पिठरादिवद्,
भ्वस्त्यर्थादिभ्यः सर्वस्यानुत्तरात् सर्वस्यासादात्मा स्वरूपं तत्त्वमित्यर्थः । द्वादशारं नयचक्रं,
पृ० १९० ३. वही० पृ० १९१-१९२
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