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आत्मा की अवधारणा
१४७ आत्म-सत्ता नहीं स्वीकार करते तथा आत्मवाद का प्रतिपादन करते हुए भी चित्त-संतति की अवधारणा के आधार पर चित्तधारा के देहोत्तर की बात को भी स्वीकार कर लेते हैं । इस प्रकार चित्तधारा की अवधारणा के आधार पर वे पुनर्जन्म एवं भवान्तर में शुभाशुभ कर्म के विपाक की अवधारणा को भी स्वीकार कर लेते हैं।
उपर्युक्त दो दर्शनों को छोड़कर उपनिषद काल से ही शेष समस्त भारतीय दर्शन नित्य आत्म-तत्त्व को स्वीकार करके चलते हैं । जहाँ तक समालोच्य ग्रन्थ "द्वादशार नयचक्र" का प्रश्न है उसमें द्वितीय विधिविधि अर में पुरुषवाद के प्रसंग में आत्म-तत्त्व की विवेचना उपलब्ध होती है चैतन्य-सत्ता के लिए उपनिषद काल से ही पुरुष और आत्मा ये दो शब्द सुप्रचलित रहे हैं । जहाँ सांख्य परम्परा में पुरुष शब्द को प्रधानता दी वहाँ अन्य परम्परा में आत्मा शब्द बहुप्रचलित रहा; इन दो शब्दों के साथ-साथ बौद्ध परम्परा में इस चैतन्य के लिए पुद्गल शब्द का प्रयोग होता है । जैनों के भगवतीसूत्र में भी जीवात्मा के लिए पुद्गल शब्द का प्रयोग हुआ है। वैसे जैन परम्परा में सामान्यतया जीव और आत्मा शब्द चैतन्यसत्ता के लिए बहु प्रचलित रहा है । आत्मा के इन विभिन्न पर्यायवाची शब्दों की व्याख्या हमें द्वादशार नयचक्र की सिंहसूरि की टीका में उपलब्ध होती है । सिंहसूरि कहते हैं कि जो सतत् रूप से गति करता है, चलता है, जानता है और परिणयन करता है वह आत्मा है। जैन आगम में आत्मा के लिए सत्व और भूत शब्द उपलब्ध होते हैं । सत्व की व्याख्या करते हुए सिंहसरि कहते हैं कि जो सदैव भावरूप है अर्थात् अस्तित्ववान है वह सत्व है अथवा जो सत् होता है वह सत् है। भूत शब्द की व्याख्या करते हुए वे कहते
१. जीवे ति वा, जीवत्थिकाये ति वा, पाणे ति वा, भूते ति वा, सत्ते ति वा, विष्णु ति वा,
चेया ति वा, जेया ति वा, आया ति वा, रंगणे ति वा, रंगणे ति वा, हिंडुए ति वा, पोग्गले ति वा, भाणवे ति वा, कत्ता ति वा, विकत्ता ति वा, जए ति वा, जंतू ति वा, जोणीति वा, सयंभू ति वा, ससरीरी ति वा, नामये ति वा, अंतरप्पा ति वा, श्रे याव ने तहप्पगारा सव्वे ते जीव अभिवयणा ।
भगवती सू० स० २०, ३०२ सू० ७ २. सततमतति गच्छति जानीते परिणमतीति चात्मा । द्वादशारं नयचक्रं० टीका० पृ० १९० ३. ...पाण-भूत-जीव-सत्ता.....। भगवती० स० १.३.१०. सू० १-२. पृ० ७० ४ सतो भावः सत्त्वम्, स एव सन् भवति । द्वादशारं नयचक्रं० पृ० १९०
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