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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन मानती हैं वे क्रियावाद के वर्ग में आती हैं । जैन दार्शनिक परम्परा जीव आदि पदार्थों और उनकी पर्यायों दोनों को सत् या वास्तविक मानती हैं और यही कारण है कि जैन दार्शनिक परम्परा को क्रियावाद के वर्ग में वर्गीकृत किया गया है एवं इसके विपरीत आत्मा को कटस्थ माननेवाले वेदान्त और सांख्य दार्शनिक परम्परा को अक्रियावाद में समाहित किया जा सकता है ।
समालोच्य ग्रन्थ द्वादशार-नयचक्र में आ० मल्लववादी और उनके टीकाकार सिंहसूरि ने क्रिया का अर्थ प्रवृत्ति और भाव माना है ।१ टीकाकार सिंहसूरि भाव का अर्थ स्पष्ट करते हुए भाव इति पर्यायकथनम् कह कर इस तथ्य को स्पष्ट कर देते हैं कि द्रव्य के साथ सत्य पर्याय या परिणमन को सत् माननेवाली परम्परा ही क्रियावद के वर्ग में आती है ।२ आ० मल्लवादी ने क्रियावाद. के दो विशेषण दिए-प्रवृत्ति और भाव । यहाँ प्रवृत्ति से तात्पर्य कर्ममार्ग या आचार पक्ष से है और भाव से तात्पर्य पर्याय से है । इस प्रकार आ० मल्लवादी के अनुसार क्रियावाद वह दार्शनिक परम्परा है जो तत्त्वमीमांसीय दृष्टि से द्रव्य और पर्याय दोनों को यथार्थ या वास्तविक मानती है। जो दार्शनिक आत्मा आदि पदार्थ को सत् मानकर भी यदि उनकी पर्यायों को अर्थात् उनके परिणमन को सत् नहीं मानते हैं, अक्रियावादी वर्ग में समाहित किए जाते हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो जो परिणामवाद को स्वीकार करते हैं वे क्रियावादी हैं और जो विवर्तवाद को स्वीकार करते हैं वे अक्रियावादी हैं अथवा जो कूटस्थ आत्मवादी हैं वे आत्मा या पुरुष के सन्दर्भ में परिणमन को स्वीकार न करने के कारण अक्रियावादी ही हैं ।
। दूसरे आ० मल्लवादी ने क्रिया का अर्थ प्रवृत्ति किया है। प्रवृत्ति-मार्ग और निवृत्ति-मार्ग अति प्राचीन परम्पराएँ हैं । प्रवृत्ति-मार्ग के अन्तर्गत् वे परम्पराएँ आती १. प्रवृत्तिः क्रिया भावः । द्वादशारं नयचक्रं पृ० ३७८ २. . तथाभवनविनाभूतसन्निधिवस्तुत्वव्यक्तिः क्रिया, तेन प्रकारेण पचिपठिगम्यादिना भवनं
तथाभवनम्, तेन भवनेन विनाभूतः सन्निधिः शक्तिमान् मात्रावस्था शक्त्यनभिव्यक्तिर्यस्य वस्तुनस्तत् तथाभवनविनाभूतसन्निधिवस्तु, तस्य भावो वस्तुत्वम्, तद्व्यक्ति: वस्तुशक्त्यभिव्यक्तिः क्रिया इत्येतत् क्रियालक्षणम् । प्रवृत्तिः क्रिया भाव इति पर्यायकथनम् । द्वादशारं नयचक्रं टीका० पृ० ३७८
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