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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन यदि संक्षेप में कहें तो जो तत्त्वमीमांसा के क्षेत्र में परिणमन को और साधना के क्षेत्र में क्रिया या आचरण को महत्व देते हैं वे विचारक क्रियावादी कहलाते हैं और उसके विपरीत वस्तुतत्त्व के परिणमन को नहीं मानते एवं एकान्तरूप से ज्ञानवाद में निष्ठा रखते हैं वे अक्रियावादी हैं ।
__ आ० मल्लवादी ने अपने द्वादशार-नयचक्र में क्रियावादी और अक्रियावादी दोनों ही पक्षों का विचार किया है किन्तु दोनों ही नय या दृष्टिकोण एकांगी होने से अपनी समीक्षा के विषय भी बने हैं । जैनों के अनेकान्तवाद को दृष्टिगत् रखकर हम यह कह सकते हैं कि वस्तु का जो ध्रौव्य पक्ष है वह अक्रिया है और वस्तु का जो उत्पाद-व्यय पक्ष है वही क्रिया है। जो वस्तु में क्रिया और अक्रिया दोनों को स्वीकार करता है वह दर्शन ही सम्यक है । इसी प्रकार आचारमीमांसा की दृष्टि से जो साधना के क्षेत्र में ज्ञान को और निवृत्ति को प्रधानता देता है वह अक्रियावादी है और जो प्रवृत्ति और क्रिया को प्रधानता देता है वह क्रियावादी है । किन्तु मुक्ति न तो एकान्तरूप ज्ञान से संभव है और न चरित्र, आचरण या प्रवृत्ति से । सूत्रकृतांग में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि ज्ञान और क्रिया से ही मोक्ष होता है। जो दोनों को स्वीकार करता है वही मुक्ति का अधिकारी बनता है । ज्ञान और क्रिया के समन्वय में मुक्ति है यही अनेकान्तदृष्टि है ।
तत्राश्रमे रतः । शिखी, मुण्डी, जटी वापि सिद्धयते नात्र संशयः ॥
सूत्र० श्रु० १, अ० ६. १. सूत्रकृतांगसूत्र १२।११-१४
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