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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
में जो नित्यद्रव्य की अवधारणा का निषेध करता है वह अक्रियावादी है किन्तु सूत्रकृतांग की उपर्युक्त परिभाषा में समस्त अक्रियावादियों को समाहित करपाना संभव नहीं है। इसलिए भगवतीसूत्र के २९वें शतक की टीका में अभयदेव ने अक्रियावाद की व्याख्या करते हुए कहा है कि जीवादि पदार्थों में क्रियारूप नहीं है ऐसा माननेवाले अक्रियावादी हैं । दूसरे शब्दों में जीवादि पदार्थ स्वीकार करके भी उनमें परिणाम को स्वीकार नहीं करते हैं अर्थात् आत्मा को कूटस्थ नित्य या अपरिणामी मानते हैं वे भी अक्रियावाद के वर्ग में आते हैं । अक्रियावद की ये व्याख्याएँ तत्वमीमांसीय दृष्टिकोण के आधर पर की गई हैं। इसे स्पष्ट करते हुए स्थानांग की टीका में अभयदेव ने लिखा है कि अस्तिरूप सकल पदार्थों में व्याप्त क्रिया को स्वीकार करनेवाले क्रियावादी हैं उसके विपरीत सकल पदार्थों में क्रिया या परिणमन को स्वीकार नहीं करते हैं वे अक्रियावादी कहलाते हैं । वस्तुतः क्रियावादी और अक्रियावादी दोनों ही एकान्तिक दृष्टियाँ हैं। क्रियावाद को स्वीकार करने पर वस्तु के उत्पाद और व्यय इन दो पक्षों की व्याख्या तो हो जाती है किन्तु उसका ध्रौव्य पक्ष उपेक्षित रह जाता है । दूसरी ओर अक्रियावाद मानने पर वस्तु का ध्रौव्य पक्ष तो उपस्थित होता है किन्तु उत्पाद और व्यय पक्ष उपेक्षित रह जाते हैं इसलिए क्रियावाद और अक्रियावाद दोनों ही मिथ्यादृष्टि की कोटि में चले जाते हैं ।
ये अक्रियावादी कौन थे इसकी चर्चा के प्रसंग में स्थानांगसूत्र की टीका में प्राचीन आगम का एक सन्दर्भ उद्धृत किया है । वहाँ कहा गया है कि अक्रियावादी आठ प्रकार के हैं । एकवादी, अनेकवादी, मितवादी, निमित्तवादी, शाश्वतवादी, समुच्छेदवादी, नित्यवादी और परलोक नहीं है ऐसा
१. अक्रियां क्रियाया अभावं वदन्ति तच्छीला अक्रियावादिनः । न कस्यचित्प्रतिक्षणमनवस्थितस्य पदार्थस्य क्रिया सम्भवति उत्पन्यनन्तरमेव विनाशादित्येवं वदत्सु ।
-भगवती०१ २. क्रिया अस्तीतिरूपा सकल पदार्थ सार्थव्यापिनी, सैवा यथावस्तु विषयतया कुत्सिता
अक्रिया, नग्नः कुत्सार्थत्वात्, तामक्रियां वदन्तीत्येवंशीला अक्रियावादिनः । यथावस्थितं ही वस्तु अनेकान्तात्मकं, तन्नास्त्येकात्तात्मकमेव वस्त्विति प्रतिपत्तिमत्सु नास्तिकेषु । स्था० ठा० ८
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