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क्रियावाद-अक्रियावाद
१३५ मानेवाले । ये सभी अक्रियावादी हैं ।१. दूसरे शब्दों में तत्त्व की सत्ता को स्वीकार करके भी जिन मान्यताओं के कारण उसमें क्रिया या परिणमन संभव न हो वे सभी अक्रियावादी वर्ग में चले जाते हैं । वस्तु को कूटस्थ मानने पर और उसको क्षणिक मानने पर भी क्रिया सम्भव नहीं है । इसलिए दोनों ही अक्रियावाद के वर्ग में समाहित होते हैं । चाहे फिर वे अद्वैतवादियों के समान एक तत्त्व को मानते हों या सांख्य आदि के सामन अनेक तत्त्व मानते हों या फिर चार्वाक आदि के समान परलोक आदि का अस्वीकार करते हों ।।
एक अन्य अर्थ में जो आत्म-साधना या चित्त-शुद्धि के लिए क्रिया के स्थान पर ज्ञान को ही महत्त्व देते हैं और शीलादि को महत्त्व नहीं देते हैं वे भी अक्रियावादी कहे गए हैं । भगवतीसत्र की टीका में अभयदेव ने समस्त ज्ञानवादियों को अक्रियावादी के वर्ग में ही समाहित किया है। सूत्रकृतांग की टीका में शीलांक ने यह कहा है कि वस्तु जैसी है वैसा ज्ञान हो जाने से ही मुक्ति हो जाती है उसके लिए सदाचार आदि की आवश्यकता नहीं है। जैसे सांख्यदर्शन के अनुसार २५ तत्त्वों को जान लेने से मुक्ति हो जाती है । अतः ज्ञानवादी परम्परा अक्रियावाद के वर्ग में समाहित की जाती है ।३
ते चाष्टः- अद्द अकिरियावादी पण्णत्ता तं जहाएक्कावादी, अणिक्कवाई, मितवादी, निमित्तवादी, सामवादी, समुच्छेदवादी, णियावादी, ण संति परलोगवादी । स्था० ठा० ४, ४३ तुलनीय-दीघनिकाय के सामंजफलसुत्त में भी (१) अक्रियावाद, (२) संसार शुद्धिवाद अथवा नियतिवाद, (३) उच्छेदवाद, (४) अन्योन्यवाद, (५) चातुर्यामसंवरवाद और (६) विक्षेपवाद जैसे वादों का उल्लेख मिलता है। आर्हत्-दर्शन दीपिका टिप्पण० पृ० ९८६ दीघनिकाय के ब्रह्मजालसुत्त में भी आठ वादों के नाम पाए जाते हैं यथा(१) अमरा-विखेपिक, (२) सस्सतवादी, (३) एकच्चसस्सतवादी, (४) अंतानंतिक, (५) अधिच्चसमुप्पनिक, (६) उद्धमाद्यातनिक, (७) उच्छेदवादी एवं दिट्ठधम्मनिबानवादी।
- उद्धृत आर्हत दर्शन दीपिका० टिप्पण० ९८४ २. अक्रियैव परलोक साधनाया लमित्येवं वदितु शील येषान्ते क्रियावादिनः । ज्ञानवादिषु
अक्रियावादिनो ये ब्रुवते किं कियया चित्तशुद्धिरेव कार्यया ते च बौद्धा इति० । भगवती०
आ० ३, । ३. तेषां हि यथा वस्थित वस्तुपरिज्ञानादेव मोक्षः । तथा चोक्तम् पंचविशतितत्त्वज्ञो, यत्र
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