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द्रव्य-गुण-पर्याय का सम्बन्ध
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समष्टि परिवर्तनशील पहा शाश्वत लक्षगया
और परिवर्तनशील पक्ष को पर्याय का नाम दिया है। दूसरे शब्दों में कहें तो अपने गुण की दृष्टि से वस्तु या द्रव्य ध्रौव्य या स्थिर कहा जाता है किन्तु अपने पर्यायात्मक परिवर्तनशील पक्ष या उत्पन्न होकर विनष्ट होनेवाले पक्ष की दृष्टि से वह परिवर्तनशील कहलाता है। जैन आचार्यों ने पदार्थ के स्वरूप का जो विवेचन किया है वह इन्हीं दो पक्षों पर आधारित है । वस्तु का वह समष्टि रूप जिसमें ध्रौव्य और उत्पाद-व्यय दोनों ही पक्ष अथवा परिवर्तनशील
और अपरिवर्तनशील पक्ष एक साथ उपस्थित हैं उसे द्रव्य की संज्ञा दी गई है। पुनः द्रव्य के ही शाश्वत लक्षण को गुण कहा गया है और उसके परिवर्तनशील पक्ष को पर्याय कहा गया है इस प्रकार वस्तु की तथ्यात्मक व्याख्या द्रव्य, गुण, पर्याय की त्रिपुटी के माध्यम से की गयी है ।३ जहाँ जैनदार्शनिकों ने सत् की व्याख्या उत्पाद-व्यय और ध्रौव्य तीन लक्षणों के आधार पर की है वहाँ उन्होंने द्रव्य की व्याख्या गुण और पर्याय के आधार पर की है। सामान्य रूप में तो द्रव्य वह है जो पर्यायों की दृष्टि से परिवर्तित होकर भी गुण की दृष्टि से वही बना रहता है । जैन-दर्शन में द्रव्य की जो भी परिभाषाएँ की गईं वे मुख्यतया गुण और पर्याय को लक्ष्य में रखकर की गई हैं । सामान्य रूप से जैन आचार्यों ने जो गुण और पर्याय का आश्रय है उसे द्रव्य कहा है । जैन ग्रन्थों में द्रव्य को अनेक रूपों में परिभाषित और व्याख्यायित किया गया है । द्रव्य की जो विभिन्न व्याख्याएँ उपलब्ध होती हैं, उन्हें प्रो० सागरमल जैन ने तीन वर्गों में विभाजित किया है
१. द्रव्य को गुण अथवा गुण और पर्याय का आश्रय कहनेवाली परिभाषा ।
२. द्रव्य को गुण और पर्याय का समूह माननेवाली परिभाषा । ३. द्रव्य को गुण पर्यायवत् माननेवाली परिभाषा ।
१. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० ८७-८८ २. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । तत्त्वार्थसूत्र० ५.२९ ३. गुणपर्यायवद्रव्यम् । तत्त्वार्थसूत्र० ५.३७ ४. गुणपर्यायवद्रव्यम् । तत्त्वार्थसूत्र ५.३७ ५. द्रव्य-गुण-पर्याय और उनका सम्बन्ध, श्रमण० अक्टूबर-दिसम्बर ९२
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