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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
भी प्रकार से परिवर्तन को प्राप्त किए बिना ही वस्तु सदा एक रूप में अवस्थित रहती है ऐसा माना जाए तब कूटस्थ नित्यत्व में अनित्यत्व सम्भव न होने से वस्तु में स्थिरत्व और अस्थिरत्व का विरोध आता है । इसी प्रकार अगर जैनदर्शन वस्तुमात्र को क्षणिक अर्थात् प्रतिक्षण उत्पन्न तथा नष्ट होनेवाली मानकर उसका कोई स्थायी आधार न मानता हो तो भी उत्पादव्ययशील, अनित्य परिणाम में नित्यत्व सम्भव न होने से उक्त विरोध आता है। परन्तु जैनदर्शन किसी वस्तु को केवल कूटस्थ नित्य या परिणामी मात्र न मानकर परिणामी नित्य मानता है । इसीलिए सभी तत्त्व अपनी-अपनी जाति में स्थिर रहते हुए भी निमित्त के अनुसार परिवर्तन अर्थात् उत्पाद और व्यय को प्राप्त करते हैं । अतएव प्रत्येक वस्तु में मूल जाति अर्थात् द्रव्य की अपेक्षा से ध्रौव्य और परिणाम की अपेक्षा से उत्पाद-व्यय से घटित होने में कोई विरोध नहीं है । जैनदर्शन का परिणामी नित्यवाद सांख्यदर्शन की तरह केवल प्रकृति तक ही सीमित नहीं है किन्तु चेन तत्त्व पर भी घटित है ।
जैनदर्शनानुसार सभी तत्त्व उत्पादव्यय-ध्रौव्य युक्त हैं उसको सिद्ध करने के लिए अनुभव प्रमाण ही मुख्य साधक प्रमाण है । सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर कोई ऐसा तत्त्व अनुभव में नहीं आता जो केवल अपरिणामी हो या मात्र परिणाम रूप हो । अतः बाह्यदृष्टि और आन्तरदृष्टि से सभी वस्तु परिणामी नित्य ही प्रतीत होती हैं । यदि सभी वस्तुएँ मात्र क्षणिक हों तो प्रत्येक क्षण में नई-नई वस्तु उत्पन्न तथा नष्ट होने तथा उसका कोई स्थायी आधार न होने से उस क्षणिक परिणाम परम्परा में सजातीयता का कभी अनुभव नहीं होगा अर्थात् पहले देखी हुई वस्तु को फिर से देखने पर जो यह वही है ऐसा प्रत्यभिज्ञान होता है वह न होगा, क्योंकि जैसे प्रत्यभिज्ञान के लिए उसकी विषयभूत वस्तु का स्थिरत्व आवश्यक है वैसे ही द्रष्टा आत्मा का स्थिरत्व भी आवश्यक है। इसी प्रकार यदि जड़ या चेतन तत्त्व मात्र निर्विकार हों तो इन दोनों तत्त्वों के मिश्रणरूप जगत् में प्रतिक्षण दिखाई देनेवाली विविधता कभी उत्पन्न न होगी। अतः परिणामी नित्यवाद को जैनदर्शन युक्तिसंगत मानता है । १. तत्त्वार्थसूत्र, पं० सुखलाल संघवी, विवेचन भाग, पृ० १३५. २. उत्पादादिसिद्धि, पृ० ९७-१०६.
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