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षष्ठ अध्याय
द्रव्य - गुण - पर्याय का सम्बन्ध
द्वादशार नयचक्र में विभिन्न दर्शनों में सभी वस्तु पदार्थ या द्रव्य की जो अवधारणाएँ हैं, उन्हें एक क्रम में प्रस्तुत किया गया है । सर्वप्रथम लौकिकवाद के अनुसार द्रव्य की परिभाषा दी गयी है । इसमें यह बताया गया है कि वस्तु वैसी होती है जिस रूप में जन-साधारण उसे ग्रहण करता है । उसके बाद में अद्वैतवादी की दृष्टि में सत्ता या द्रव्य का स्वरूप क्या है ? उसकी चर्चा की गई है । इन अद्वैतवादी विचारकों ने अपने-अपने मन्तव्यों के अनुसार सत्ता या द्रव्य को व्याख्यायित किया है । किसी ने उसे पुरुष कहा तो किसी ने उसे काल या स्वभाव आदि के रूप में ही बताया है । २ ये विचारक सृष्टि के मूल कारण के आधार के रूप में ही सत्ता को देखने का प्रयास करते हैं और उसी रूप में उसे व्याख्यायित भी करते हैं । अतः इन विचारकों के मन्तव्यों के प्रसंग में आ० मल्लवादी ने भी द्रव्य के किसी विशिष्ट लक्षण के विषय में कोई चर्चा नहीं की है । आ० मल्लवादी उसके पश्चात् द्वैतवादी विचारकों, विशेषरूप से सांख्यदर्शन की दृष्टि में सत्ता के स्वरूप की चर्चा प्रस्तुत करते हैं । ३ सांख्य दार्शनिक मूलभूत सत्ता को पुरुष और प्रकृति ऐसे दो विभाग में विभाजित करते
९. यथालोकग्राहमेव वस्तु । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ११ लोकवदेव चार्थः । वही, पृ० ५७
२. द्वादशारं नयचक्रं द्वितीय अर, पृ० १७२ - २४२
३. अजामेका लोहितशुक्लकृष्णां बहवीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः ।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ||
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श्वेताश्व० ५-४ उद्धृत, द्वादशारं नयचक्रं, पृ० २६६
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