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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन में सत् केवल नित्य या केवल अनित्य स्वरूप नहीं है किन्तु नित्य एवं अनित्य उभयात्मक है । जैनदर्शन में अन्य ग्रन्थों में सत् के स्वरूप के विषय में जो चर्चा प्राप्त होती है वह इस प्रकार हैजैनदर्शन में सत् का स्वरूप
जो उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त है, वह सत् है । चेतन या अचेतन द्रव्य का स्व जाति को न छोड़ते हुए जो पर्यायान्तर की प्राप्ति होती है वह उत्पाद है। जैसे मृत्पिण्ड में घट पर्याय । पूर्वपर्याय के विनाश को व्यय कहते हैं । जैसे घडे की उत्पत्ति होने पर पिण्डाकार का नाश होता है । अनादि पारिणामिक स्वभाव से व्यय और उत्पाद नहीं होते किन्तु द्रव्य स्थित रहता है, ध्रुव बना रहता है उसे ध्रौव्य कहते हैं । जैसे कि पिण्ड और घट दोनों अवस्थाओं में मृदूपता का अव्यव है ।२
उत्पादादि युक्त होने से सत् का स्वरूप केवल कूटस्थ नित्य या केवल निरन्वयविनाशी अर्थात् सत् केवल नित्य या केवल क्षणिक नहीं हो सकता । तथा अन्य दर्शनकारों में पदार्थ का कुछ अंश नित्य और कुछ अंश अनित्य माना गया है उसी तरह जैनदर्शन में सत् का अमुक भाग कूटस्थनित्य और अमुक भाग परिणामीनित्य अथवा कोई भाग नित्य और कोई भाग मात्र अनित्य हो सकता है । हम कह सकते हैं कि जड़ या चेतन, मूर्त या अमूर्त, सूक्ष्म या स्थूल सभी सत् पदार्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य रूप से त्रिरूप हैं । ये तीनों रूप प्रत्येक वस्तु में एक साथ ही विद्यमान रहते हैं । इस त्रिरूपात्मकता को ही जैनदर्शन में सत् माना गया है । कहा भी गया है कि जो वस्तु उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य को धारण नहीं करती वह वस्तु नहीं हो सकती, अर्थात् जिसमें तीनों रूप विद्यमान नहीं हैं, वह वस्तु नहीं अवस्तु ही है । जैसे खरगोश का शींग, जो उत्पाद, विनाश और ध्रौव्य रहित है । १. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । तत्त्वार्थसूत्र, ५ /२९. २. उत्पादो वस्तुनो भावो, नाशस्तस्य व्ययो मतः । ध्रौव्यमन्वितरूपत्वमेकं नान्योऽन्यवर्जितम् ॥
- उत्पादादिसिद्धिः, ४ ३. यदुत्पादव्ययध्रौव्ययोगितां न बित्ति वै ।
तादृशं शशशृंगादिरूपमेव परं यदि ॥ वही०, ६.
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