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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
नित्य है या न केवल अनित्य है । वह नित्यानित्यात्मक है। यह अर प्रकृति और पुरुष स्वरूप द्वैतवाद का स्थापन करता है ।
सांख्य दर्शन इसी अर में समाविष्ट होता है । ४. विधि नियम-प्रस्तुत अर में सत् को द्रव्यात्मक माना गया है ।
विधि का नियमन ही सत् है । कर्म को ही सत् माना गया है । कर्म के कारण ही जीव प्रवृत्ति करता है। तदनुरूप फल भोगता है। इस प्रकार कर्मवादियों के मत का स्थापन करके कर्म को ही सत् स्वरूप माना गया है । इस अर का मुख्य लक्ष्य कर्म
स्वरूप द्रव्य को सत् मानना है । ५. उभय-इस अर में सत् को उभयात्मक माना गया है । सत् को
द्रव्यात्मक एवं भावात्मक माना है । ६. विधिनियम विधि-इस अर में सत् विधिनियमात्मक होते हुए
भी, द्रव्य-क्रियात्मक होते हुए भी भिन्न है । उसका अलग अस्तित्व है । अभेद प्रधान सत् में भेद माना है ।।
उभय-उभय-इस अर में सत् को अन्यायोन्य स्वरूप माना है । ८. उभयनियम-इस अर में सत् को शब्दात्मक ही माना है । वस्तु
नाममय है, तदतिरिक्त उसका कुछ भी स्वरूप नहीं है। ९. नियम-इस अर में सत् को अवक्तव्य स्वरूप माना है । वस्तु न
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१. अजामेकां लोहितशुक्ल कृष्णां बहवीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः । अजोह्येको जुषमाणोऽनुशेषे जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ।। .
(श्वेताश्वः ४/५) द्वादशारं नयचक्र० पृ० २६६ २. वही, पृ० ३४७-३७५. ३. पदार्थो द्रव्यक्रिये । द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ४१५. ४. द्रव्यगुणयोर्द्रव्यत्वगुणत्वसम्बन्ध सद्भावात् स्वभाव सद्भावाच्चेत्येवमादि साधर्मयवैधाभ्यां
षट्सु पदार्थेषु विशेषा एव वैशेषिकं विशेष प्रयोजनं वा वैशेषिकमिति विधिनियमयो
विधिरुपपद्यते । द्वादशारं नयचक्रम् टीका० पृ० ४४६. ५. द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ५३६-५४२.
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