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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
और अभेद दोनों मानते हुए भी अभेद को प्रधानता दी गई है और भेद को गौण माना गया है । यह परिणामी नित्यवाद का सिद्धान्त है । भेदअभेद के अधीन है । इस विचारधारा का प्रतिनिधित्व सांख्यदर्शन, निम्बार्क, भास्कराचार्य, विशिष्टाद्वैतवाद करता है। ४. चौथे वर्ग का सिद्धान्त भी सत् में भेद और अभेद दोनों को स्वीकार
करता है अर्थात् यह नित्यानित्य उभयवादी सिद्धान्त है । तीसरे वर्ग से इसका अन्तर इस आधार पर है कि यह अभेद को गौण और भेद को प्रमुख बनाता है । न्याय-वैशेषिक दर्शन कुछ पदार्थों को मात्र नित्य और कुछ को मात्र अनित्य मानने के कारण नित्यानित्य उभयवादी हैं । प्रो० सागरमलजी के अनुसार मध्व भी इसी मत का प्रतिनिधित्व करते हैं । पाँचवें वर्ग के सिद्धान्त में सत् को भेद और अभेदमय मानते हुए किसी एक को प्रमुख नहीं माना गया, वरन् दोनों को परस्परापेक्षी माना गया है । पं० सुखलालजी ने इसी सिद्धान्त को नित्यानित्यात्मक माना है । भेद और अभेद दोनों सापेक्ष हैं और एक-दूसरे पर निर्भर होकर ही अपना अस्तित्व रखते हैं । जैनदर्शन इसी वर्ग में आता है।
उपरोक्त वर्गीकरण के अतिरिक्त सत् सम्बन्धी भारतीय सिद्धान्तों का एक और वर्गीकरण प्रो० सागरमलजी ने किया है । उनके कथनानुसार सत् के विभिन्न दृष्टिकोण के मूल में तीन प्रश्न रहे हैं । अतः इन तीन प्रश्नों के आधार पर मुख्य तीन विभाग करके उनमें अन्यान्य दर्शन के सत् सम्बन्धी सिद्धान्त को सामाविष्ट किया गया है । जो इस प्रकार है१. सत् के एकत्व और अनेकत्व का प्रश्न
(क) एकत्त्ववाद (ख) द्विक्त्ववाद
(ग) बहुत्त्ववाद १. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भाग-१, पृ० १८५. २. प्रमाणमीमांसा, भाषा टिप्पणानि, पृ० ५३-५४. ३. जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भा० १, पृ० १८३.
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