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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
सत् को विद्वान् अनेक प्रकार से कहते हैं । द्वादशारनयचक्र में भी सत् के स्वरूप के विषय में चर्चा की गई है। आचार्य मल्लवादि ने ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही यह प्रश्न उठाया है कि "किमेव प्रतिपाद्यमस्ति ?" प्रतिपाद्य क्या है ?
और साथ में यह भी प्रश्न उठाया है कि इस सृष्टि का व्याप्त अर्थात् मूल तत्त्व क्या है ? यहाँ व्याप्त शब्द से आचार्यश्री को परम तत्त्व, मूल तत्त्व या वस्तुतत्त्व ही अभिप्रेत है क्योंकि इसके बाद वस्तुतत्त्व की चर्चा का ही प्रारम्भ किया गया है । द्वादशार-नयचक्र में तत्कालीन प्रायः सभी वादों का संग्रह है। अतः उसमें सत् सम्बन्धी सिद्धान्तों की चर्चा प्राप्त होती है।
इस परम तत्त्व के स्वरूप के सम्बन्ध में विचारणाओं की विविधता का कारण बताते हुए प्रो० सागरमलजी ने कहा है कि'-जिन्होंने मात्र इन्द्रिय अनुभवों की प्रामाणिकता को स्वीकार कर उसे समझने का प्रयत्न किया उन्हें वह अनेक और परिवर्तनशील प्रतीत हुआ और जिन्होंने इन्द्रिय अनुभवों की प्रामाणिकता में सन्देह कर केवल तर्क-बुद्धि के माध्यम से उसे समझने का प्रयास किया उन्होंने उसे अद्वय, अव्यय, और अविकार्य पाया । अतः सत् के स्वरूप के सम्बन्ध में मत्वैविद्य के निम्न कारण हैं१. इन्द्रियानुभव, बौद्धिक ज्ञान, अन्तर्दृष्टि आदि ज्ञान के साधनों की
विविधता। २. व्यक्तियों के दृष्टिकोणों, ज्ञानात्मक स्तरों तथा वैचारिक परिवेशों की
विभिन्नताएँ । ३. भाषा की अपूर्णता तथा तज्जनित अभिव्यक्ति समबन्धी कठिनाईयाँ । ४. सत् एक पूर्णता है और ज्ञाता मानस उसका अंश है । अंश अंशी को पूर्णरूपेण नहीं जान सकता । इस प्रकार ज्ञान की आंशिकता ।
इस प्रकार सत् सम्बन्धी दृष्टिकोणों की विविधता के उपर्युक्त चार कारण हैं। १. ऋग्० अष्ट०२. अ० ३, व० २३. म० ४६. २. किमेव प्रतिपाद्यमस्ति ? द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ६. ३. तत्र विधिवृत्तिस्तावद यथालोकग्राहमेव वस्तु.... I - द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ११. ४. जैन, बौद्ध तथा गीता के आचार दर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भा० १, पृ० १८३.
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