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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
इस आपत्ति का निराकरण करते हुए कहा गया है कि संसारी जीव को अपने सुख-दुःख का बोध नहीं होता है तथा संसारी जीव अपने हिताहित के विषय में भी अज्ञानी हैं । उसको यह ज्ञान नहीं है कि क्या करने से उनको लाभ होगा या क्या करने से उनको हानि होगी ? इसी कारण अपने सुखदुःख का कर्ता स्वयं नहीं हो सकता । अतः यह मानना आवश्यक है कि जीव ईश्वर की प्रेरणा से ऐसे कार्य करता है जिन से स्वर्ग अथवा नरक की प्राप्ति होती है, क्योंकि अज्ञों की प्रवृत्ति में यह प्रेरणा ही कारण होती है । इस प्रकार केवल ईश्वर में ही कारणता की सिद्धि की गई. है ।
इस प्रकार नयचक्र में प्रथम न्यायसूत्र के आधार पर ईश्वरवाद की स्थापना की गई फिर उसके प्रति होनेवाली सम्भावित आपत्तियों का निराकरण करके उसकी तार्किक ढंग से पुष्टि की गई है। ईश्वरवाद का खण्डन
जैन, बौद्ध, मीमांसक, सांख्य और योग ईश्वर को जगत् का निमित्त कारण या उपादान कारण कुछ भी नहीं मानते । अतः उक्त दर्शन के ग्रन्थों में ईश्वरवाद का खण्डन प्राप्त होता है । द्वादशारनयचक्र के चतुर्थ अर में भी कर्मवाद के उत्थान के पूर्व कर्मवादी के द्वारा ही ईश्वरवाद का खण्डन किया गया है। कर्मवाद के अनुसार जीव के शुभाशुभ कर्म ही सुख या दुःख के कारण हो सकते हैं अन्य कोई व्यक्ति सुख या दु:ख का कारण नहीं बन सकता । अतः कर्मवाद का तात्पर्य यह है कि सृष्टि का नियमन करनेवाला कोई एक चेतन तत्त्व नहीं हो सकता किन्तु पुरुष स्वयं ही अपने कर्मानुसार फल प्राप्त करता है । द्वादशारनयचक्र की टीका में कहा गया है कि अपने कर्मों से मुक्त होकर ही सब मनुष्य उत्पन्न होते हैं । कर्म जिस प्रकार का १. अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुख-दुःखयोः । ईश्वरप्रेरितो गच्छेत् स्वर्ग या श्वभ्रमेव वा । महा० वन० ३०/ २८.
- उद्धृत्, द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ३३०. २. नन्वेवं त्वदुक्ता एवोपपत्तयः सर्वप्राणीश्वररत्वं साध्यन्ति, सुखाद्यात्मसंवेद्यलक्षणत्वात् कर्मणः
सुखाद्यदृष्टाणूनामपि कर्मत्वात् कर्मप्रवर्तनाभ्युपगमात् सर्वप्राणिनां कर्तृत्वात् कर्मप्रवर्तनाभ्युपगमात् सर्वप्राणिनां कर्तृत्वात् करिव भवितृत्वाभ्युपगमात् तथ्यैव भवितुश्च प्रयोजनात् सर्वेश्वरता । द्वादशारं नयचक्रं पृ० ३३५-३३६
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