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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास भिन्न-भिन्न पदार्थ के रूप में स्वीकार किए गए हैं । इस नय में द्रव्य और पर्याय दोनों को एक-दूसरे से स्वतन्त्र या भिन्न-भिन्न माना गया है । उभय अर्थात् विधि-नियम, सामान्य-विशेष, उत्सर्ग-अपवाद इन दोनों की विधि अर्थात् दोनों की स्वतन्त्रता का स्वीकार । इस अर में वैशेषिक संमत द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, समवाय आदि पदार्थों का निरूपण भेद प्रधान दृष्टि से किया है।
प्रस्तुत अर का समावेश नैगम नय में किया गया है। उसका सम्बन्ध जैन आगम ग्रन्थ के जीवाभिगम सूत्र के निम्न उद्धरण से बताया गया है :
इमाणं भंते ! रतणप्पभा पुढवी किं सासता, असासता ? गोतमा ! सिया सासता सिया असासता । से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चति-सिया सासता असासत्ति ? (३.१.७८)१ (७) उभयोभयम्
प्रारम्भ में वैशेषिक दर्शन मान्य सत्ता एवं समवाय का सविस्तार खण्डन किया गया है। सत्तादि पदार्थों का निरास करके अपोहवाद की स्थापना की गई है । उभयोभयम् में उभय का अर्थ है सामान्य एवं विशेष—ये दोनों का उभय यानि भाव तथा अभाव । इसमें सामान्य एवं विशेष दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व एवं दोनों का अभाव अर्थात् दोनों के स्वतन्त्र नहीं होने, इन दोनों पक्षों को स्वीकृत किया गया है ।
प्रस्तुत अर ऋजुसूत्र नय का भेद माना गया है तथा जैनदर्शन में उसका सम्बन्ध भगवतीसूत्र के "आताभंते पोग्गले, णो आता ? गोतमा सिया आता परमाणुयोग्गला, सिया णो आता' (१२.१०.४६९)२ के साथ स्थापित किया. गया है। (८) उभयनियम
प्रारम्भ में पूर्वोक्त अपोहवाद का खण्डन किया गया है । इसमें उभय
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ४५०-४५१. २. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७३७.
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