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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन भी ईश्वर शब्द का अर्थ 'स्वामी' से अधिक नहीं है। विश्व सृष्टा, विश्व नियंता, सर्वशक्तिमान कोई ईश्वर है ऐसी अवधारणा तो अथर्ववेद में भी बहुत स्पष्ट रूप में नहीं मिलती है । यद्यपि वेदों के कुछ सूत्रों की व्याख्या ईश्वरवाद के रूप में भी की जाती है । स्वामी दयानन्द सरस्वती आदि ने अपनी व्याख्या में कुछ वेद-सूत्रों को इस रूप में व्याख्यायित किया है किन्तु प्राचीन मीमांसक और सायण आदि भी इस रूप में व्याख्या नहीं करते । ईश्वर की अवधारणा का स्पष्ट प्रतिपादन और उसमें विश्व सृष्टा और विश्व नियंता के रूप में उल्लेख उपनिषद् काल के ही हैं । यह सत्य है कि मानव मस्तिष्क ने सृष्टि वैचित्र्य की खोज में ही नियति, काल, स्वभाव आदि के साथ-साथ ईश्वरवाद की अवधारणा को विकसित किया और ईश्वर को परम आत्मा के रूप में व्याख्यायित किया गया । औपनिषदिक काल से ईश्वर की अवधारणा का दो रूपों में विकास देखा जाता है; एक ओर ईश्वर को परम आत्मा या नैतिक
और आध्यात्मिक मूल्यों के सर्वोच्च रूप में व्याख्यायित किया जाता है तो दूसरी ओर उसे विश्व के सृष्टा, नियंता और संहारकर्ता के रूप में चित्रित किया गया है।
_ भारतीय धर्मों की श्रमण और ब्राह्मणधारा में ईश्वर या परमात्मा की अवधारणा का विकास तो हुआ किन्तु जहाँ श्रमणधारा में उसे नैतिक पूर्णता या आध्यात्मिक पूर्णता के रूप में परम शुद्ध, पवित्र आत्मा कहा गया वहाँ ब्राह्मणधारा में उसे विश्व का सृष्टा, नियामक और दुर्जनों का विनाशकर्ता एवं सज्जनों पर कृपा करनेवाला कहा गया है । यद्यपि हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि ब्राह्मणधारा में जो प्राचीन मीमांसक हैं वे ईश्वर की अवधारणा को स्वीकार करके नहीं चलते हैं । लोकमान्य बाल गंगाधर का कथन हैवेदों में आधुनिक ईश्वर (सृष्टिकर्ता ईश्वर की) मान्यता का अभाव है । जिस
१. ईश्वर-मीमांसा, पृ० ५६. २. श्वेताश्व, अ० ३, पृ० १३६-१३७. ३. कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्वा ।
संयोग एषां न त्वान्मभावादात्माप्यनीश: सुखदु:ख हेतोः ॥ ४. गीता रहस्य, पृ० ८९.
श्वेताश्व० १.२.
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