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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
प्रत्यक्ष सिद्ध है, भाववाद में नहीं घटेगी।
इस प्रकार कालवाद, पुरुषवाद, नियतिवाद, स्वभाववाद एवं भाववाद के सिद्धान्त का वर्णन प्रस्तुत ग्रन्थ में प्राप्त होता है । अद्वैत कारण की चर्चा करते हुए उपरोक्त वादों का निरूपण किया गया है। इस वर्णन के आधार पर हम कह सकते हैं, कि प्राचीन काल में कालादि वाद प्रचलित रहे होंगे किन्तु बाद में वे दर्शन लुप्त हो गए इतना ही नहीं किन्तु तद्तद् वादों की चर्चा एवं खण्डन-मण्डन भी लुप्त हो गया, अतः परवर्ती दार्शनिक ग्रन्थों में एतद्विषयक चर्चा प्राप्त नहीं होती है ।
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