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ईश्वर की अवधारणा
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प्रकार वेदों में सृष्टिकर्त्ता (ईश्वर) की मान्यता नहीं है उसी प्रकार उनमें ईश्वर से सृष्टि की उत्पत्ति का भी कथन नहीं है । कथन की बात ही क्या अपितु उसमें ईश्वर से सृष्टि उत्पत्ति का बलपूर्वक निषेध किया गया है । आज आस्तिक दर्शनों में जिन दर्शनों को परिगणित किया जाता है उनमें न केवल मीमांसा ही किन्तु प्राचीन सांख्य दर्शन में भी ईश्वर की अवधारणा का अभाव रहा है । यद्यपि विज्ञानभिक्षु आदि परवर्ती सांख्याचार्यों ने 'ज्ञ' पुरुष के रूप में सांख्यदर्शन में ईश्वर की अवधारणा को प्रविष्ट करने का प्रयास किया है ।" योगदर्शन में यद्यपि ईश्वर का प्रत्यय है किन्तु वहाँ भी ईश्वर साधना का चरम आदर्श या ध्येय माना गया है। योगदर्शन भी उसको सृष्टिकर्ता के रूप में कोई व्याख्या नहीं करता है । भारतीय नास्तिक दर्शनों के वर्ग में चार्वाक, बौद्ध और जैन ईश्वर के सृष्टिकर्त्ता स्वरूप का खण्डन करते हैं किन्तु जैनदर्शन में पवित्रात्मा, पूर्णात्मा, कर्मफल से शुद्धात्मा या नैतिक या आध्यात्मिकता की पूर्णता को प्राप्त आत्मा के रूप में परमात्मा की अवधारणा अवश्य उपस्थित है ।
जैन दार्शनिकों ने केवली, सर्वज्ञ, वीतराग और तीर्थकर के रूप में ईश्वर (परमात्मा) को स्वीकार किया, किन्तु सृष्टिकर्त्ता या सृष्टि नियंता के रूप में ईश्वर को कभी स्वीकार नहीं किया, वे इसके स्पष्ट रूप से आलोचक रहे ।
आलोच्य ग्रन्थ द्वादशारनयचक्र में सृष्टिकर्त्ता और विश्वनियंता ईश्वर की
१. ईश्वरासिद्धेः १.९२.
प्रमाणाभावान्न तत्सिद्धि : ११५. १०.
२. सांख्य-प्रवचन- भाष्य, पृ० ४९-५१. ३. ईश्वरप्रणिधानाद्वा
४. क्लेश-कर्म विपाकाशयैरपराभृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः । सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥
५.
स त्वमेवासि निर्दोष युक्तिशास्त्रविरोधिवाक् ।
अविरोधो यदिष्टं ते प्रसिद्धेन न बाध्यते ॥
कर्त्तास्ति कश्चिद् जगतः स चैकः स सर्वगः स स्ववशः नित्यः ।
इमा कुवाक विडम्बना स्युस्तेषां न येषामनुशासकस्त्वम् ॥
६.
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सांख्यसूत्र ०
योगसूत्र १.२३ वही, १.२४.
तत्वार्थ सूत्र १.३०
आप्तमीमांसा, श्लोक ० ७७.
स्याद्वाद - मंजरी, पृ० ३८.
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