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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन ३. इसी प्रकार काल को ही एकमात्र तत्त्व मानने पर सामान्य एवं विशेष का व्यवहार भी संभावित नहीं हो सकता ।
४. यदि ऐसा मान लिया जाए कि काल का ऐसा स्वभाव है तब तो स्वभाववाद का ही आश्रय लेना पड़ेगारे ।
५. यदि आप काल को व्यवहार पर आश्रित करेंगे तो भी दोष आयेगा क्योंकि इससे काल की स्वतन्त्र सत्ता नहीं रहेगी । पुनः पूर्व, अपर आदि व्यवहार का दोष होने पर लब्ध काल का भी अभाव हो जायेगा और इस प्रकार काल को आधार मानकर जो बात सिद्ध की गई हैं वे सब निरर्थक हो जायेंगी ।
द्वादशारनयचक्र के अतिरिक्त निर्ग्रन्थ-दर्शन के अनेक ग्रन्थों में भी कालवाद का खण्डन किया गया है । यदि काल का अर्थ समय माना जाए अथवा काल को प्रमाणसिद्ध द्रव्य का पर्याय मात्र माना जाए अथवा काल को द्रव्य की उपाधि माना जाए या इसे स्वतन्त्र पदार्थ के रूप में माना जाए । किसी भी स्थिति में एकमात्र उसको ही कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि कारणान्तर के अभाव में केवल काल से किसी की भी उत्पत्ति नहीं होती और यदि एकमात्र काल से भी कार्य की उत्पत्ति संभव होगी तो एक कार्य की उत्पत्ति के समय अन्य सभी कार्यों की भी उत्पत्ति की आपत्ति होगी ।
यदि केवल काल ही घटादि कार्यों का जनक माना जायेगा तो घट की उत्पत्ति मात्र मृद में ही न होकर तन्तु आदि में भी संभव होगी क्योंकि इस मत में कार्य की देशवृत्तिता का नियामक अन्य कोई नहीं है और यदि देश वृत्तिता के नियमनार्थ तत्तत् काल में तत्तत् देश को भी कारण मान लिया जायेगा तो कालवाद का परित्याग हो जायेगा ।
१. वही, पृ० २२१-२२२. २. वही, पृ० २२१-२२२. ३. वही, पृ० २२१-२२२. ४. कालोऽपि समयादिर्यत् केवलः सोऽपि कारणम् । तत एव ह्यसंभूतेः कस्यचिन्नोपपद्यते ॥
शा० वा० स० स्तबक २, १८९. ५. यतश्च काले तुल्येऽपि सर्वत्रैव न तत्फलम् । अतो हेत्वन्तरापेक्षं विज्ञेयं तद् विचक्षणैः ॥
वही, स्तबक-२, १९०. पृ० ५२.
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