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कारणवाद
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जो विचित्रता, विभिन्नता पाई जाती है वह भी स्वभावतः ही होती है? । कण्टक को तीक्ष्ण कौन करता है ? मृग और पक्षियों को कौन रंगता है ? यह सब स्वभावतः ही होता है । मृग के बच्चे की आँखों में अंजन कौन करता है ? मयूर के बच्चे को कौन रंगता है ? और कुलवान पुरुष में विनय कौन लाता ? अर्थात् यह सब स्वभाव से ही होता है । इस प्रकार नयचक्र में स्वभाववाद की स्थापना की गयी है ।
नयचक्र में स्वभाववाद की स्थापना के अवसर पर विरोधियों के आक्षेपों को प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि यदि स्वभाव ही कारण है तब क्यों न ऐसा मान लिया जाए की स्वभाव से ही कण्टक की उत्पत्ति होती है । उसमें भूमि आदि की कोई आवश्यकता नहीं है। कण्टक कण्टक के रूप में ही क्यों उत्पन्न होता है ? अन्यथा क्यों नहीं उत्पन्न होता ? कण्टक ही क्यों तीक्ष्ण होता है ? कुसुम ही क्यों सुकुमार होता है ?
उक्त प्रश्नों के उत्तर में कहा गया है कि वस्तु का स्वभाव विशेष ही ऐसा है कि वह उसी प्रकार उत्पन्न होता है । भूमि आदि का स्वभाव है कण्टकादि को उत्पन्न करने का जैसे मनुष्य का स्वभाव है कि वह क्रमशः वृद्धि पाता है । वय क्रमशः ही बढ़ती है और दूध में से घी का भी क्रमशः ही बनना वस्तु का स्वभाव है। ऐसा न मानने पर विश्व की व्यवस्था ही नहीं टिक पायेगी । घट बनाना माटी का स्वभाव है अतः उससे घट बनता है किन्तु आकाश से घट नहीं बनता३ ।
दूसरा आक्षेप यह किया गया है कि घट आदि की उत्पत्ति क्रिया से
१.
तथा च दृश्यते तेष्वेव तुल्येषु भूम्यम्ब्वादिषु भिन्नात्मभावं प्रत्यक्षत एवं कण्टकादि । तदेव तीक्ष्णादिभूतम्, न पुष्पादि तादृग्गुणम् । तच्च वृक्षादीनामेव । तथा मयूराण्डक...... मयूरादिबर्हाण्येव विचित्राणि । वही, पृ० २२२.
कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्ष्ण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां च ।
स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ॥
केनाञ्जितानि नयनानि मृगाङ्गनानां, को वा करोति रुचिराङ्गरुहान् मयूरान् ।
कश्चोत्पलेषु दलसन्निचयं करोति को वा करोति विनयं कुलजेषु पुंसु । वही, पृ० २२२.
३. द्वा० न० पृ० २२२ - २२४.
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