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कारणवाद
नियतिवाद के विषय में त्रिपिटक' और जैनागमरे में यत्र-तत्र विशेष चर्चा
की गई है । भगवान् बुद्ध जब बौद्ध धर्म का प्रतिपादन कर रहे थे तभी नियतिवादी भी अपने मत् का प्रचार कर रहे थे । इसी प्रकार भगवान् महावीर को भी गोशालक आदि नियतिवादियों के सामने संघर्ष करना पड़ा था । आत्मा एवं परलोक को स्वीकार करने के बाद भी नियतिवादी यह मानते थे कि संसार में जो विचित्रता है उसका अन्य कोई कारण नहीं है । सभी घटनाएँ नियतक्रम में घटित होती रहती हैं । ऐसा नियतिवादियों का मानना था । नियतिचक्र में जीव फँसा हुआ है और इस चक्र को बदलने का सामर्थ्य जीव में नहीं है । नियतिचक्र स्वयं गतिमान् है और वही जीवों को नियत क्रम में यत्र-तत्र ले जाता है । यह चक्र समाप्त होने पर जीवों का स्वत: मोक्ष हो जाता है ।
गोशालक के नियतिवाद का वर्णन "सामञफल सुत्त" में प्राप्त होता है। यथा प्राणियों की अपवित्रता का कोई कारण नहीं है बिना कारण ही प्राणी अपवित्र होते हैं । उसी तरह प्राणियों की शुद्धता में भी कोई कारण नहीं है । वे अकारण और अहेतुक ही शुद्ध होते हैं। स्व के सामर्थ्य से भी कुछ नहीं होता है । वस्तुतः पुरुष में बल या शक्ति ही नहीं है । सर्व सत्य, सर्व प्राणी, सर्व जीव अवश, दुर्बल और निर्वीर्य हैं । अतः जो कोई यह मानता है कि इस शील, व्रत, तप या ब्रह्मचर्य से मैं अपरिपक्व कर्म को परिपक्व करूँगा अथवा परिपक्व हुए कर्मों का भोग करके उनका नाश करूँगा, ऐसी मान्यता समुचित नहीं है । इस संसार में सुख-दुःख परिमित रूप में हैं अतः उसमें वृद्धि या हानि संभावित नहीं है । संसार में प्रबुद्ध और मूर्ख दोनों का मोक्ष नियत काल में ही होता है । यथा सूत के धागे का गोला क्रमशः ही खुलता है।
इसी प्रकार का वर्णन उपासकदशांग (प्रायः २-३ शती),
१. दीघनिकाय-सामज्जफलसुत्त २. व्याख्याप्रज्ञप्ति उपासकदशांग, सूत्रकृतांग. ३. बु० च०, पृ० १७१. ४. उपासकदशांग, अ०-७.
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