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कारणवाद
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सृष्टि की उत्पत्ति होती है । अत: पुरुष और प्रकृति में कोई अन्तर नहीं है । रूपादि का नियमन करनेवालों को नियति कहते हैं । पुरुष भी रूपादि का नियमन करता है । अतः पुरुष और नियति अभिन्न हैं ।
अपने रूप में होना स्वभाव है । पुरुष भी अपने रूप में अर्थात् स्वरूप में उत्पन्न होता है । अतः स्वभाव भी पुरुष का ही पर्यायवाची शब्द है ।
पुरुषवाद का खण्डन
I
द्वादशारनयचक्र में उक्त पुरुषवाद की मर्यादाओं को प्रदर्शित करने के लिए आचार्य मल्लवादि ने नियतिवाद का उत्थान किया है । सर्वप्रथम यह प्रश्न उठाया है कि पुरुषवाद में पुरुष ज्ञाता एवं स्वतन्त्र है, ऐसा माना गया है तब पुरुष को अनर्थ और अनिष्ट का भोग क्यों करना पड़ता है ? क्योंकि जो ज्ञानी है और जो स्वतन्त्र है वह विद्वान् राजा की तरह सदा अनिष्ट और अनर्थ से मुक्त रहेगा । किन्तु व्यवहार में तो पुरुष को अनर्थ एवं अनिष्टों से व्याप्त देखा जाता है । अतः यह संभव नहीं है कि जो ज्ञाता हो, वह स्वतन्त्र भी हो ।
यदि आपत्ति की जाय कि निद्रावस्था के कारण स्वतन्त्र पुरुष की स्वतन्त्रता का भंग होता है उसी प्रकार अनिष्ट और अनर्थ के आगमन का कारण पुरुष की प्रमत्त दशा ही है। किन्तु ऐसा जानने पर भी पुरुष में स्वतन्त्रता की हानि ही जाननी पड़ेगी और ऐसी परिस्थिति में पुरुष परतन्त्र होने
१. प्रकरणात् प्रकृति: । वही, पृ० १९१
सत्त्वरजस्तमः स्वतत्त्वान्, प्रकाशप्रवृत्तिनियमार्थान् गुणानात्मस्वतत्त्व विकल्पानेव भोक्ता प्रकुरुते इति प्रकृतिः यथाहुरेके अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां
सरूपाः ।
अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः ॥ श्वेतश्व०, ४.१.५५, वही, पृ० १९१.
२. रूपाणादिनियमनान्नियतिः । वही, पृ० १९१.
३. स्वेन रूपेण भवनात् स्वभावः । वही, पृ० १९१.
४. वही, पृ० २४६-२६१
५.
स यदि ज्ञः स्वतन्त्रश्च, नात्मनोऽनर्थमनिष्टमापादयेद् विद्वद्राजवत् । वही, पृ० १९३.
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