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कारणवाद
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बाल्यावस्था में युवावस्था प्राप्त नहीं होती । अतः युगपत् सभी अवस्थाओं के अभाव के आधार में अन्य किसी भी तत्त्व को कारण मानना ही पड़ेगा, वही कारक तत्त्व नियति है ।
__इस प्रकार द्वादशारनयचक्र में नियतिवाद की स्थापना की गई है । नियतिवाद भारतीय दर्शन में खासकर बौद्ध दर्शन एवं जैनदर्शन के ग्रन्थों में वर्णित है । उक्त दर्शनों के ग्रथों में नियतिवाद का वर्णन पूर्वपक्ष के रूप में प्राप्त होता है । इस आधार पर हम कह सकते हैं कि प्राचीन काल में नियतिवाद एक प्रभावपूर्ण सिद्धान्त रहा होगा । क्रमशः नियतिवाद का हास होता गया । अतः पश्चात्कालीन ग्रन्थों में नियतिवाद का वर्णन या खण्डन भी कम होता गया । द्वादशारनयचक्र में नियतिवाद का सिद्धान्त अनेक तार्किक दलीलों के आधार पर स्थापित किया गया है एवं तत्पश्चात् अकाट्य तर्कों के द्वारा उसका खण्डन भी किया गया है ।
पुरुषवाद
द्वादशारनयचक्र के द्वितीय अर में विभिन्न कारणवादों की स्थापना एवं आलोचना की गई है । जगत् में दृश्यमान विविधता का कारण क्या हो सकता है ? ऐसी जिज्ञासा भारतीय तत्त्वचिन्तकों के मन में प्राचीन काल में ही उद्भूत हो चुकी थी । प्रस्तुत शंका का समाधान पाने के लिए विभिन्न दार्शनिकों ने अपने-अपने ढंग से प्रयास किया । परिणाम यह हुआ कि जगत् वैचित्र्य की व्याख्या के किसी सर्वमान्य सिद्धान्त के स्थान पर विभिन्न सिद्धान्त अस्तित्व में आए । इन सिद्धान्तों के विषय में खण्डन-मण्डन की परम्परा भी शुरू हुई । इन सिद्धान्तों में एक पुरुषवाद भी है । पुरुषवाद का कथन है कि विश्व की विचित्रता का एकमात्र कारण पुरुष आत्मा-ब्रह्म ही है ।
पुरुषवाद का मूल हमें ऋग्वेद के "पुरुषसूक्त'' में मिलता है ।
१. न च स्वभावात्, बाल्यकौमारयौवनस्थविरावस्थाः सर्वस्वभावत्वाद् युगपत् स्युः,
भेदक्रमनियतावस्थोत्पत्त्यादिदर्शनान्न स्वभावः कारणम् । वही, पृ० १९६ २. पुरुष एवेदं सर्वं यद् भूतं यच्च भाव्यम् ।
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ।। द्वा० न० पृ० १८९.
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