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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
घटित होनेवाली नहीं होती है वह बहुत प्रयत्न करने पर भी उस रूप में घटित नहीं होती और जो होनेवाली होती है वह अन्यथा नहीं हो सकती है ।
नियति का स्वरूप
नयचक्र में नियति के स्वरूप का चिन्तन करते हुए कहा गया है कि नियति जगत् कारण होते हुए भी वह सत्ता से अभिन्न ही है । कोई एक पुरुष में बाल्यादि अवस्थाभेद के विकल्प उत्पन्न होते हैं किन्तु परमार्थ से तो वह पुरुष एक ही है । ऐसे ही नियति भी परमार्थतः एक ही है । तथा जैसे स्थाणु या पुरुष में यह वही स्थाणु या वह वही पुरुष ऐसी प्रतीति का कारण ऊर्ध्वता सामान्य है वैसे ही क्रिया और फल के भेद से नियति में भेद किया जाता है तथापि वह परमार्थतः तो अभेद स्वरूप ही है ।
यह नियति भिन्न द्रव्य, देश, काल और भाव के भेद से तत्स्वरूप, अतत्स्वरूप, आसन्न और अनासन्न भी है ।
नियति काल, स्वभाव आदि नहीं है । काल से ही ऐसी विचित्रता सम्भवित है ऐसा भी नहीं कह सकते हैं क्योंकि कभी-कभी वर्षा, शरद्, हेमन्त, शिशिर, बसन्त, और ग्रीष्म आदि ऋतु समयानुसार प्रवर्तित नहीं भी होती हैं४ । कभी-कभी अकाल में भी वर्षादि देखी जाती है । अत: काल इस विचित्रता का कारण नहीं हो सकता ।
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स्वभाव भी जागतिक वैचित्र्य का कारण नहीं हो सकता क्योंकि बालक रूप में होना, युवा रूप में होना ये सभी पुरुष का स्वभाव होने पर भी
१. प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नृणां शुभाशुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयत्ने नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः ॥
द्वा० न० पृ० १९४. २. परमार्थतोऽभेदासौ कारणं जगतः, भेदवबुद्धयुत्पत्तावपि परमार्थतोऽभेदात्, बालादिभेदपुरुषवत् । कथम् ? अभेदबुद्ध्याभासभावे ऽप्यभेदाभ्यनुज्ञानाद् भेदबुद्धयाभासभावेऽप्यभेदाभ्यनुज्ञानादेव व्यवच्छिन्नस्थाणुपुरुषत्ववत् । वही, पृ० १९५
३.
सा च तदतदासन्नानासन्ना, तस्या एव तदतदासन्नानासन्नानानावस्थद्रव्यदेशादिप्रतिबद्धभेदात्, मेघगर्भवत् । वही, पृ० १९६.
४.
न कालादयं विचित्रो नियमः, वर्षारात्रादिष्वपि क्वचिदयथर्तुप्रवृत्तेः । द्वा० न० पृ० १९६.
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